Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 675
________________ * पारिभाषिक शब्द- - कोष *५२१* व्यन्तरदेव - जिन देवों के निवास जलाशय, वृक्ष, वनादि विविध क्षेत्र हैं, अनेक प्रकार के वनान्तर जिनके आश्रयभूत हैं, वे व्यन्तर कहलाते हैं। अथवा जिनका मनुष्यों से अन्तर नहीं है, वे भी वाणव्यन्तर कहलाते हैं। व्यवहारचारित्र-अशुभ (आचरण) से निवृत्ति और शुभ आचरण में प्रवृत्ति व्यवहारचारित्र है। व्यवहारनय-संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों का जिसके द्वारा भेद किया जाता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं । व्यवहार - सम्यक्त्व - (I) मिथ्यात्व से विपरीत तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप निश्चय - सम्यक्त्व का कारणभूत व्यवहार-सम्यग्दर्शन है। (II) मूढ़तात्रय, अष्टविध मद, छह अनायतन, शंकादि आठ मल से रहित शुद्ध जीवादि तत्त्वार्थ- श्रद्धान- लक्षण सराग-सम्यक्त्व का ही अपर नाम व्यवहार - सम्यक्त्व है। व्यवहार-सम्यग्ज्ञान- अंगशास्त्र और पूर्वश्रुत विषयक ज्ञान व्यवहार - सम्यग्ज्ञान का लक्षण है। व्यवहार-सम्यग्दर्शनाराधना - तीन मूढ़ताओं और पच्चीस दोषों को दूर करके हेय के परित्याग और उपादेय के ग्रहणपूर्वक जिसमें जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान किया जाये, उसे व्यवहार-सम्यग्दर्शनाराधना कहते हैं। व्युत्सर्गतप- (I) विविध बाह्याभ्यन्तर बन्धहेतुओं - दोषों का उत्कृष्ट त्याग व्युत्सर्ग है। (II) आत्मा और आत्मीयरूप संकल्प - अहंकार और ममकार का त्याग व्युत्सर्ग है। (III) बाह्य शरीर, भक्त, उपधि और अन्तरंग क्रोधादि कषायों तथा राग-द्वेषादि विकारों का व्युत्सर्जन = विशिष्ट रूप से त्याग करना व्युत्सर्गतप है। यह आभ्यन्तरतप है । व्युत्सर्ग-समिति - जीव-जन्तुओं से रहित पृथ्वी पर मल, मूत्र, कफ, लींट आदि को अतिशय प्रयत्न (यतना) के साथ डाला (परिठा) जाये, उसे व्युत्सर्ग-समिति कहते हैं । व्युत्सृष्ट-मरण-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का परित्याग करके जो मृत्यु हो, वह व्युत्सृष्ट-मरण है। व्यवहार - हिंसा - रागादि की उत्पत्ति में बाह्य निमित्तभूत जो अन्य प्राणियों का घात होता है, उसे व्यवहार - हिंसा कहते हैं। व्युपरत क्रियानिवृत्ति - जो ध्यान वितर्क व वीचार से रहित हो, क्रिया से विहीन हो, जिसमें योगों का निरोध हो चुका हो तथा शैलेश (मेरुपर्वत) के समान निष्कम्प और स्थिरता प्राप्त हो, उसे अन्तिम व्युपरत - क्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान कहते हैं। शेष चार अघातिकर्मों का क्षय करने के लिए अयोगीकेवली भगवान इसे ध्याते हैं। व्रत- (I) हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह, इन पाँचों से विरत होने का नाम व्रत है। (II) सर्वसावद्ययोगों से निवृत्ति को व्रत कहते हैं | (III) नियमों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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