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* ५२८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
समाधिमरण-रत्नत्रय में तथा शुद्ध आत्मभावों में एकाग्रचित्त हो कर जिसमें समाधिपूर्वक मृत्यु का सहर्ष स्वीकार किया जाता है, वह।
समारम्भ-दूसरों को सन्ताप देने वाले हिंसादि कार्य के साधनों का अभ्यास करना समारम्भ है।
समिति-प्राणियों को पीड़ा से बचाने के लिए सम्यक् प्रकार से इति = प्रवृत्ति करना समिति है। यह गमनादि पाँच प्रवृत्तियों-चेष्टाओं की एक संज्ञा है।
समुच्छिन्न क्रियानिवर्ती-जिस (शुक्ल) ध्यान के समय प्राण-अपान के संचार (श्वासोच्छ्वास क्रिया) के साथ समस्त तन, मन, वचन के योगों के आश्रय से होने वाले आत्म-प्रदेश-परिस्पन्दनरूप क्रिया का व्यापार नष्ट हो जाता है, उसे समुच्छिन्न-क्रियानिवर्ती शुक्लध्यान कहते हैं। इसे समुच्छिन्न-क्रियानिवृत्ति एवं समुच्छिन्न-क्रियाऽप्रतिपाती भी कहते हैं।
समुद्घात-समभूत हो कर आत्म-प्रदेशों के शरीर से बाहर प्रक्षेप-निर्गमन का नाम समुद्घात है।
समुद्देश-सूत्र की व्याख्या करना अथवा अर्थ को प्रदान करना समुद्देश है।
सम्मूर्छिम-जो जीव सब ओर से अपने यथायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूर्छिम या सम्मूर्छन जीव कहलाते हैं।
सम्यक्चारित्र-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसहित जो पंचमहाव्रत पंचसमिति--तीन गुप्ति में प्रवृत्ति और हिंसादि पंचपापों से निवृत्ति होती है या चारित्रावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से सम्यक क्रियाओं में प्रवृत्ति, मिथ्या क्रियाओं से निवृत्ति होती है, उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं।
सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व-(व्यवहार से) आप्त, आगम, यथार्थरूप से जाने गये नौ पदार्थों (तत्त्वों) के प्रति जीव के श्रद्धान को तथा (निश्चय से) शुद्ध आत्मा के प्रति श्रद्धान को सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहते हैं।
सम्यग्दर्शन-जीवादि पदार्थों के विषय में, जो ‘यही तत्त्व है' ऐसा तत्त्वार्थ का जो निर्धारण और श्रद्धान होता है, वह सम्यग्दर्शन है।
सम्यक्त्व-क्रिया-अरिहन्त देव, निर्ग्रन्थ गुरु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा-भक्ति, बहुमान, पूजा, आदर-सत्कार-पुरस्कार, उनकी स्तुति, स्तवन, गुणगान, प्रभावना आदि करना सम्यक्त्व-क्रिया या सम्यक्त्ववर्द्धिनी-क्रिया है।
सम्यक्त्व-मोहनीय-शुभ परिणाम द्वारा जिसके अनुभाग को रोक दिया गया है तथा जो उदासीनरूप से स्थित जीव के श्रद्धान को रोक नहीं सकता है, ऐसा मिथ्यात्व सम्यक्त्व-मोहनीय कहलाता है। इसके उदय का अनुभव करने वाला जीव वैसे तो सम्यग्दृष्टि कहलाता है, किन्तु देव, गुरु, धर्म तथा आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान में चल, मल, अगाढ़ दोष के कारण उसके सम्यक्त्व में शिथिलता आ जाती है।
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