Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 683
________________ * पारिभाषिक शब्द सम्यग्ज्ञान-(I) संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय तथा भ्रान्ति से रहित, ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय और क्षयोपशम से मति श्रुतादि भेदरूप ज्ञान का होना सम्यग्ज्ञान है। (II) जो-जो जीवादि पदार्थ जिस-जिस प्रकार से व्यवस्थित हैं, उनका उसी रूप में ग्रहण होना सम्यग्ज्ञान है। - कोष * ५२९ * सम्यक्-मिथ्यात्व-जिस प्रकार धोने से कोदो (एक तुच्छ धान्य) की मद-शक्ति कुछ क्षीण हो जाती है और कुछ वनी रहती है, उसी प्रकार जिसका रस (अनुभाग) कुछ क्षीण हो चुका है, कुछ बना हुआ है; ऐसे उस मिथ्यात्व को सम्यग् - मिथ्या कहते हैं। सरागचारित्र - जो संसार के कारणों को छोड़ने में उद्यत है, पर जिसका रागादिरूप अभिप्राय नष्ट नहीं हुआ है, उसे कहते हैं - सराग । रागसहित संयम को सरागसंयम कहते हैं। मध्य की ८ कषायों के उपशम तथा संज्वलन और नोकषायों के क्षयोपशम से युक्त जो चारित्र होता है, अथवा आदि के १२ कषायों के क्षयोपशम तथा संज्वलन और नोकषायों के उदय से जो चारित्र होता है, उसे सरागचारित्र जानना चाहिए । सरागसंयम - (I) प्राणियों और इन्द्रियों के विषय में जो अशुभ प्रवृत्ति होती है, उससे विरत होने का नाम संयम है। सराग-साधक के संयम को अथवा रागसहित संयम को सरागसंयम कहते हैं। (II) मूल- उत्तरगुणों रूप सम्पत्ति के साथ लोभ आदि के उदययुक्त जो प्राणिवध आदि से निवृत्ति होती है, उसे भी सरागसंयम कहते हैं । सराग-सम्यक्त्व - जो तत्त्वार्थ, श्रद्धान प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणों से प्रकट होता है अथवा इन चिह्नों से जाना जाता है, उसे सराग- सम्यक्त्व कहते हैं। सर्वज्ञ - जो त्रिकालवर्ती गुण - पर्यायों के सहित समस्त लोक व अलोक को प्रत्यक्ष जानता है, वह सर्वज्ञ है। सर्वौषधि (प्राप्त) ऋद्धि (लब्धि) - जिस ऋद्धि के प्रभाव से दुष्कर तपयुक्त मुनियों का स्पर्श, जल, वायु, रोग और नख आदि सब रोग-निवारिणी औषधि का काम करते हैं, ऐसी ऋद्धिया । सवितर्क-अवीचार-एकत्वध्यान - जिस शुक्लध्यान में एकत्व के साथ वितर्क ( श्रुतज्ञान और उसका विषयभूत अर्थ ) तो रहता है, पर वीचार नहीं रहता, वह सवितर्क-एकत्वअवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान होता है। सवितर्क -सवीचार - सपृथक्त्व ध्यान - यह प्रथम शुक्लध्यान है, इसमें वितर्क और वीचार पृथक्त्व के साथ रहते हैं। सहसाऽभ्याख्यान- समुचित विचार न करके सहसा किसी पर झूठा आरोप, अविद्यमान दोष का आक्षेप लगाना सहसाऽभ्याख्यान है। Jain Education International संक्रमण - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों को अन्यथा रूप में परिणत करना संक्रमण है। अथवा यहीं अन्य प्रकृति के रूप में परिणमाना भी संक्रमण है। संक्लेश - (1) असातावेदनीय के बन्धयोग्य परिणाम | (II) अथवा आर्त और रौद्रध्यानरूपं परिणाम। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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