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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ५१५ *
विप्पणास-मरण (समाधिमरण का एक प्रकार)-जिसे अकेला सहन न करके ऐसे दुरुत्तर, दुर्भिक्ष, घोर अटवी, पूर्व शत्रु का, दुष्ट राजा का या चोर का भय अथवा मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत उपद्रव के उपस्थित होने पर या ब्रह्मचर्यव्रत के भंग का नाश आदि चारित्रदोष-सम्बन्धी संकट उपस्थित होने पर पापभीरु, संवेग- प्राप्त मुनि कर्मोदय को उपस्थित जान कर पापाचरण करने से या चारित्र-विराधना करने से डरता है। ऐसे धर्म-संकटकाल में वह ऐसा निर्णय करता है कि यदि मैं उपसर्ग-पीड़ित होने से संयम से भ्रष्ट हो जाऊँगा तो दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाने पर संक्लेशयुक्त हो कर उसे भी सहन न कर सकूँगा। ऐसी स्थिति में मैं रत्नत्रय के आराधन से भ्रष्ट हो जाऊँगा। अतः वह निश्चल, निर्द्वन्द्व हो कर दर्शन व चारित्र से शुद्ध रहकर अरहन्त के पास में (या अरहन्त की साक्षी से) आलोचना करके निर्मल परिणामों से आहार-पानी का त्याग (निरोध) करता है। इस अवस्था में उसका जो समाधिपूर्वकमरण होता है, उसे विप्पणासमरण कहा जाता है। . विप्रौषधि (लब्धि)-'विट्' शब्दमल का 'पु' शब्द प्रस्रवण का वाचक है जिसके मल और मूत्र दोनों औषधिरूप हो जाते हैं, वह विप्रौषधि या विडौषधिलब्धि (ऋद्धि) का धारक होता है।
विभंगज्ञान-(I) क्षायोपशमिक व कर्मागम के निमित्तभूत विपरीत अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मिथ्यात्व के सहित रहता है। (II) जिस अवधिज्ञान के जानने के पीछे आशय सम्यक् नहीं होता, दृष्टि विपरीत होती है, वह विभंग कहलाता है।
विरताविरत-प्रत्याख्यान कषाय के उदय होने से जीव विरताविरत होता है। जो हिंसादि पाँच पापों से स्थूलरूप से विरत होता है, सूक्ष्मरूप से अविरत, किन्तु सम्यग्दृष्टि और तत्त्वों का ज्ञान और श्रद्धान रखता है, वह विरताविरत श्रावक है।
विरति-चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम के निमित्त से औपशमिक आदि चारित्र का आविर्भाव होता है, उसे विरति कहते हैं।
विराग-राग के कारणों के अभाव में जो विषयों से विरक्ति होती है, उसका नाम विराग है।
विरागता-लोभनिग्रह का नाम विरागता है। लोभ के अन्तर्गत आसक्ति, रागभाव, मोह, वासना, कामना, लालसा, तृष्णा आदि सभी आ जाते हैं।
विरागविचय-शरीर अपवित्र है और भोग किम्पाक फल के समान विषैले हैं, इस प्रकार विषयों के प्रति विरक्ति का पुनः-पुनः चिन्तन विरागविचय धर्मध्यान कहलाता है। धर्मध्यान के १0 भेदों में से यह छठा भेद है। _ विराधक-जो रत्नत्रयस्वरूप विशुद्ध आत्मा को छोड़ कर परद्रव्य का विचार करता है, उसे विराधक कहा गया है।
विरुद्धराज्यातिक्रम-(I) राज्य के कानून के विरुद्ध कार्य करना। (II) विरोधी राज्य . में या पर-राज्य में शासकीय विधान का भंग कर अन्य प्रकार से वस्तु का ग्रहण, राज्य
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