Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 668
________________ * ५१४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * विद्याचारण-जिनको विद्या के बल से आने-जाने की लब्धि या ऋद्धि (शक्ति) प्राप्त हो जाती है, उन्हें विद्याचारण कहते हैं। विनय-(I) जो अष्टविध कर्मों को विनयति यानी नष्ट करता है, हटाता है, चतुर्गतिरूप संसार से मुक्त कराता है, वह विनय है। (II) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप (द्वादशविध) तथा बहुविध उपचारविनय के भेद से विनय ५ प्रकार का है। (III) ज्ञानादि चतुष्टय में जो अतिचार हों, अशुभ क्रियाएँ हों, उन्हें दूर करना- हटाना विनय है। विनय-सम्पन्नता-मोक्ष के साधनभूत सम्यग्ज्ञानादि और उनके भी साधन (मार्गदर्शक) गुरु आदि हैं, उनकी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार विनय, बहुमान, आदर-सत्कार करना विनय-सम्पन्नता है। यह तीर्थंकर-नामकर्म के बन्धक कारणों में से एक है। विनयाचार-कायिक, वाचिक, मानसिक शुद्ध परिणामों के साथ जो स्थित है, उसके लिए अथवा उसके द्वारा उक्त शुद्ध परिणामों में स्वयं स्थित होने हेतु-शास्त्र का जो पाठ, व्याख्यान और परिवर्तन (पर्यटना) बार-बार अनुशीलन-किया जाता है, उसे विनयाचार कहते हैं। विपाक-(I) कषाय की तीव्रता-मन्दता आदि भावों की विशेषता के अनुसार जो कर्म की अनुभाग-शक्ति में विशेषता होती है, उसका नाम विपाक है। (II) विपचन का नाम विपाक है यानी शुभाशुभ कर्मपरिणाम (कर्मफल)। (III) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवरूप पाँच निमित्तों के भेद से जो कर्मों के अनुभाग (फलदान-शक्ति में विश्वरूपता = विविधता) होती है, उसे विपाक कहते हैं। विपाकजा निर्जरा-पूर्वबद्ध कर्म अपनी स्थिति के पूर्ण होने पर जो पकते हैं-उदय को प्राप्त हो कर फल देते हैं-उसे विपाकजा निर्जरा कहते हैं। इसके विपरीत अविपाकजा निर्जरा उदय में आने से पहले ही तप, परीषह-उपसर्ग-विजय आदि के द्वारा उदीरणा करके यानी उदय में ला कर उन कर्मों की निर्जरा की जाती है, उसे अविपाकजा निर्जरा कहते हैं। विपाकजा निर्जरा दोनों प्रकार की होती है-सकामा और अकामा। विपाकविचय (धर्मध्यान)-(I) एक या अनेक भवों में उपार्जित जीवों के पुण्य व पापकर्मों के फल, उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष का जिस ध्यान में विचार किया जाता है, उसे विपाकविचय धर्मध्यान कहते हैं। (II) अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के निमित्त से जो ज्ञानावरणीयादि कर्मों के फल के अनुभवन (अनुभाव) का विचार किया जाता है, अथवा जिस ध्यान में कर्म के फल (विपाक) का निर्णय किया जाता है उसका नाम भी विपाकविघय धर्मध्यान है। विपुलमति (मनःपर्यायज्ञान)-(I) जो ऋज व अन्जु मनोगत, वचनगत तथा कायगत को जान लेता है, उसे विपुलमति मनःपर्यायज्ञान कहते हैं। (II) जो मनःपर्यायज्ञान मन से-मतिज्ञान से, मन अथवा मतिज्ञान के विषय को जान कर दूसरों की .संज्ञा, चिन्ता, स्मृति, मति, जीवन-मरण, पूर्वजन्म, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि को जान लेता है, वह विपुलमति है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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