Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 666
________________ * ५१२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * वयःस्थविर-साठ वर्ष से ऊपर का वृद्ध जन। वर्गणा-(I) समस्त जीवों के अनन्तवें, भाग-प्रमाण वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। (II) असंख्यात-लोकप्रमाण योगाविभाग-प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है। वर्ण-नामकर्म-जिस कर्मोदय के निमित्त से शरीर में वर्ण प्राप्त हुआ करता है, उसे वर्ण-नामकर्म कहते हैं। वशार्तमरण-इन्द्रिय-विषयों के वश हो कर पीड़ित होते हुए मरना वशार्तमरण है। वलयमरण = वलयमरण-जो साधक संयम के अनुष्ठान से खिन्न हो कर या संयम से भ्रष्ट हो कर क्षुधादि परीषहों द्वारा मरते हैं; उनका मरण वलयमरण, वलायमरण या वलन्मरण होता है। वह्नि-लोकान्तिक देवों का एक प्रकार, जो वह्नि (अग्नि) की तरह देदीप्यमान होता है। इसलिए उक्त देवों का नाम 'वह्नि' है। वाक्य-शुद्धि-पृथ्वीकायादि जीवों के प्रति आरम्भ-विषयक प्रेरणा से रहित, परपीड़ाजनक, कठोर, कर्कश, छेदन-भेदनकारी, निश्चयकारी, हिंसाकारी, सावद्य आदि वचन-प्रयोग से रहित, हित, मित, प्रिय, मधुर, सत्य वचन बोलने का नाम वाक्य-शुद्धि है। दशवैकालिकसूत्र के सातवें अध्ययन में साधक के लिए वाक्य- शुद्धि का सुन्दर मार्गदर्शन है। इसे वाक्शुद्धि भी कहते हैं। वाक्-संयम-हिंसाकारी व कठोर आदि वचनों से निवृत्त हो कर शुभ भाषा में प्रवृत्ति करना वाक्संयम है। वाग्गुप्ति-पाप की हेतुभूत स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, देशकथा या चौर्यकथा इत्यादि विकथाओं को अथवा असत्य आदि वचनों के परित्याग को तथा वाणी पर नियंत्रण रखने को वाग्गुप्ति कहते हैं। मौन रखना भी वाग्गुप्ति है। ___ वाग्भव-असमीक्ष्याधिकरण-निरर्थक कथा-वार्ता करना, दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला कुछ भी भाषण करना, अंटसंट बकवास करना वाग्भव (वाचिक)असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है। यह आठवें अनर्थदण्ड-विरमणव्रत के मौखर्य नामक अतिचार के अन्तर्गत है तथा सामायिक व्रत के १0 वाचिक दोषों में से एक दोष है। वाग्योग-वचनयोग-(I) औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के व्यापार से प्राप्त हुए वचन-द्रव्य-समूह की सहायता से जो जीव का व्यापार होता है, वह वाग्योग है। (II) वाणी की उत्पत्ति के लिए प्रयत्न वाग्योग है। (III) भाषा-पर्याप्तियुक्त जीव के शरीर-नामकर्म के उदय से स्वर-नामोदय सहकारी कारण से भाषावर्गणा में आये हुए पुद्गलस्कन्धों का चतुर्विध भाषारूप से परिणमन वाग्योग है। वाचना-निर्दोष ग्रन्थ और उसका अर्थ दोनों पढ़ाना, दोनों का प्रदान करना वाचना है। शिष्यों को पढ़ाने को भी वाचना कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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