Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 655
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५०१ * मनुष्यगति-नाम-(I) जिस गति-नामकर्म के उदय से जीव मनुष्यभव या मनुष्यभाव को प्राप्त होता है, वह। (II) जो कर्म मनुष्य की सब पर्यायों-अवस्थाओं का कारण है, वह है-मनुष्यगति-नामकर्म। मनुष्यायु-जिस कर्म के उदय से शारीरिक, मानसिक सुख-दुःखों से युक्त मनुष्यों में जन्म होता है, उसे मनुष्यायुकर्म कहते हैं। मनोगुप्ति-(I) मन से रागादि का हट जाना, विषय कषायों से दूर रहना। (II) पापपूर्ण आर्त-रौद्रध्यानादिरूप संकल्प (चिन्तन) को रोकना। (III) सरागसंयमादिरूप कुशल संकल्प का अनुष्ठान करना। (IV) अथवा कुशल-अकुशल दोनों ही प्रकार के संकल्पों का निरोध करना। मनोबल ऋद्धि (लब्धि) (I) जिस ऋद्धि के प्रभाव से जीव श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के उत्कृष्ट क्षयोपशम के होने पर एक अन्तर्मुहूर्त मात्र में समस्त श्रुत का चिन्तन कर लेता व उसे जान लेता है; उसका नाम मनोबल या मनोबली है। (II) १२ अंगशास्त्रों में उहिष्ट त्रिकाल-सम्बन्धी अनन्त अर्थपर्यायों और व्यंजनपर्यायों से व्याप्त ६ द्रव्यों का सतत चिन्तन करने पर भी खेद को प्राप्त न होना मनोबल है। ऐसी मनोबल ऋद्धि का स्वामी मनोबली कहलाता है। मनोयोग-(1) आभ्यन्तर वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप मनोलब्धि का सन्निधान होने पर, बाह्यनिमित्तभूत मनोवर्गणा का आलम्बन होने पर, मनःपरिणामों के अभिमुख हुए जीव के आत्म-प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है, उसे मनोयोग कहते हैं। (II) मन के योग्य पुद्गलों (मनोवर्गणा) के आश्रय से जो आत्म-प्रदेशों में परिणमन होता है, उसे मनोयोग कहते हैं। मंत्र (जाप्य)-जो पुरुषदेवाधिष्ठित हो, तथा जो हवनादि अन्य साधना से रहित हो, अथवा पाठ करने मात्र से सिद्ध हो जाता है, वह मंत्र कहलाता है। ऐसे मंत्र का जाप भी किया जाये तो वह सिद्ध हो जाता है। मंत्र (राज्यकार्योपयोगी)-निम्नोक्त पाँच अंगों से सम्पन्न हो, वह मंत्र सर्वकार्योपयोगी होता है-(१) जो सभी कार्यों के प्रारम्भ करने में उपायभूत हो, जिसमें अपाय और उपाय दोनों का विचार किया जाये, (२) जिसमें पुरुष, द्रव्य, सम्पत्ति-सामर्थ्य का विचार हो, (३) देश और काल के विभाग का विवेक हो, (४) आई हुई आपत्ति के प्रतीकार करने का सामर्थ्य हो, (५) कार्यसिद्धि का भी विचार हो। इस प्रकार की मंत्रणा से सम्पन्न मंत्र सभी सामाजिक, राजकीय, सांस्कृतिक कार्यों में उपयोगी होता है। मंत्री-मंत्र वही है, जो इन पाँच अंगों से युक्त मंत्रणा करने में कुशल हो। मंत्रभेद-सत्याणुव्रत का एक अतिचार। विश्वासपात्र व्यक्ति आदि के द्वारा कही हुई गोपनीय या गुप्त बात को प्रगट कर देना यह मंत्रभेद विश्वासघात, घट-स्फोट या आत्महत्या का भी कारण बन जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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