Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 662
________________ * ५०८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * रूपानुपात - दशवें देशावकासिक व्रत का एक अतिचार | मर्यादित क्षेत्र के बाहर प्रयोजन उपस्थित होने पर रूप ( चेहरा ) दिखा कर दूसरे को अपने निकट लाने का प्रयत्न करना रूपानुपात नामक अतिचार (दोष) है। रूपी - जो स्निग्ध और रूक्षगुणयुक्त पुद्गल गुणों के अविभाग-प्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान होते हैं, वे रूपी कहलाते हैं। रोग-परीषहजय - रोगों को निराकुलतापूर्वक सहना रोग-परीषहसहन या रोगपरीषहजय है। ध्यान - (I) क्रूराशय कर्म से होने वाला ध्यान रौद्रध्यान है। उसके चार प्रकार हैंहिंसानुबन्धी; मृषानुबन्धी, स्तेनानुबन्धी, संरक्षणानुबन्धी। (II) प्राणिहिंसा, असत्य, चौर्यकर्म और विषय ( धनादि) संरक्षण तथा ६ प्रकार के आरम्भ से सम्बन्धित तीव्र कषायसहित होने वाला ध्यान | (III) अथवा निरन्तर प्राणिवधादि-विषयक चिन्तन करना भी रौद्रध्यान है। (ल) लक्षण - (I) किसी वस्तु के असाधारण धर्म को लक्षण कहते हैं। (II) परस्पर मिले हुए होने पर भी जिसके द्वारा विवक्षित वस्तु की भिन्नता का बोध हो, उसे लक्षण कहते हैं। (III) जिसके अभाव में द्रव्य ( वस्तु) का अभाव हो सकता है, उसे उसका लक्षण जानना चाहिए। जैसे- उपयोग के अभाव में जीव का और रूपरसादि के अभाव में पुद्गल का अभाव हो सकता है। अतः जीव का लक्षण उपयोग और पुद्गल का लक्षण है - रूपरसादि। लघुकर्मा (हलुकर्मी) - जिसके समीचीन धर्म पालन से द्वेष के कारणभूत मिथ्यात्व आदि का तीव्र उदय न हो, उसे लघुकर्मा ( लहुकर्मी या हलुकर्मी) कहा जाता है। . लघुगति - तूम्बड़ी या बेगयुक्त आक की रुई आदि की गति को लघुगतिशीघ्रतायुक्तगति कहते हैं। लघु-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुगलों में लघुता (हल्कापन ) होती है, उसे लघु- नामकर्म कहते हैं । लब्धि - (I) विशिष्ट प्राप्ति या उपलब्धि को लब्धि कहते हैं। (II) ज्ञानावरणीय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम का नाम लब्धि है | (III) विशिष्ट तप के कारण जो ऋद्धि प्राप्त होती है, उसे लब्धि कहते हैं | (IV) इन्द्रियों द्वारा पदार्थों को जानने की शक्ति को भी लब्धि कहते हैं। लब्धिस्थान - समस्त चारित्रस्थानों को लब्धिस्थान कहते हैं। लव- सात स्तोकों का एक लव होता है। लाक्षावाणिज्य-१५ कर्मादानों में से एक कर्मादान। लाख, मनः शील, नीली, धातकी ( एक वृक्ष की छाल) और टंकण खार आदि इन पाप की कारणभूत वस्तु का व्यापार करना लाक्षावाणिज्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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