Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 663
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५०९ * लाघव-(I) “यह मेरा है' इस प्रकार के ममत्व का परित्याग करके अहंकार त्याग करना-लघुता धारण करना-लाघव है। यह शौचधर्म का रूपान्तर है। (II) क्रियाओं में कुशलता-दक्षता को भी लाघव कहते हैं। __ लाभ-(I) लाभान्तराय कर्म के क्षय से भोग्य-उपभोग्य वस्तुओं का होने वाला लाभ। (II) इच्छित पदार्थ की प्राप्ति का नाम लाभ है। लाभान्तराय कर्म-जिसके उदय से लाभ में बाधा पहुंचे। लीनता-प्रतिसंलीनता (I) स्त्री, पशु, नपुंसक आदि के संसर्ग से रहित निर्बाध एकान्त स्थान में रहना तथा मन, वचन, काय, कषाय और इन्द्रियों को वश में रखना यह लीनता नामक बाह्यतप है। इसे प्रतिसंलीनता तथा विविक्त शय्यासन तप भी कहते हैं। लेश्या-(I) कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। (II) जिसके द्वारा प्राणी कर्म से संश्लिष्ट हो, उसका नाम लेश्या है। (III) कृष्ण आदि रंग के द्रव्यों की सहायता से जीव का जो परिणाम होता है, उसे भी लेश्या कहते हैं। ___ लोक-जो अनन्तानन्त आकाश के ठीक मध्य भाग में स्थित हो कर अनादि-अनन्त है तथा ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है, जीवादि षड्द्रव्यों से समृद्ध है, जो आदि व अन्त से रहित है तथा स्वभाव से उत्पन्न हुआ है, उसे लोक कहते हैं। लोकपाल-जो दुर्ग के पालन-रक्षण की तरह लोक का पालन करते हैं, वे लोकपाल हैं। वे चारों दिशाओं में चार हैं-सोम, यम, वरुण और कुबेर (वैश्रमण)। __लोकपूरण-समुद्घात = केवलि-समुद्घात-(I) जब वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति बहुत और आयुकर्म की स्थिति कम होती है, तब केवली के आत्म-प्रदेश उपयोग के बिना ही, उक्त कर्मों की स्थिति को आयु के समान करने के लिए शरीर से बाहर निकल कर चार समयों में समस्त लोक को व्याप्त कर देते हैं, इस प्रक्रिया का नाम लोकपूरण-समुद्घात है; इसे केवलि-समुद्घात भी कहते हैं। (II) जिस प्रकार मद्यद्रव्य के फेन का वेग बुदबुद के आविर्भाव होते ही शान्त हो जाता है, उसी प्रकार केवलि-समुद्घात होते ही केवली की आयु के समान वेदनीय आदि अन्य अघातिया कर्मों की भी स्थिति हो जाती है। ___लोकमूढ़ता-(i) नदी या समुद्र में स्नान करने, बालू व पत्थरों का ढेर लगाने, पर्वत से गिरने, अग्नि में पड़ने = सती होने इत्यादि (को अन्धविश्वास से पुण्यकारक मानना) लोकमूढ़ताएँ हैं। (II) इहलौकिक श्रेय के लिए अन्ध-विश्वासपूर्वक कई रूढ़ियाँ, परम्पराएँ, रीति-रिवाज मानना, जैसे-संक्रान्ति में तिल दान, ग्रहणादि में दान, स्नान तथा कुदेवों की आराधना आदि लोकमूढ़ताएँ हैं। लोकाकाश-(I) जो जीव और पुद्गलों से सम्बद्ध तथा धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय एवं काल से व्याप्त हो कर सदा आकाश में रहता है, वह लोकाकाश है। (II) जहाँ धर्मास्तिकायादि द्रव्य देखे जाते हैं, वह लोकाकाश है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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