Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 661
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५०७ * पापस्थानों में रति-अरति दोनों को एक पापस्थान माना है। (II) अथवा जिस कर्म के उदय से अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के प्रति अत्यधिक प्रीति उत्पन्न हो, वह रति है। रसगौरव-रसगारव-(I) इष्ट रस या रसास्वादयुक्त वस्तु पा कर गर्व करना। (II) अभीष्ट रस का त्याग न करना, अनिष्ट रस के विषय में अनादरभाव (द्वेषभाव) रखना भी रसगौरव है। रस-परित्याग-बाह्य तप का एक भेद। विशिष्ट रस से युक्त तथा विकार के कारणभूत दूध, दही, घी, तेल तथा गुड़ (शक्कर), मधु, नवनीत आदि पाँच विगइयों तथा मद्य और माँस इन महाविगइयों का त्याग करना रस-परित्याग नामक तप है, इस तप को निव्विगइ (निर्विकृति) तप भी कहा जाता है। रस-वाणिज्य-मद्य, वसा (चर्बी), मधु, नवनीत आदि रसों का व्यवसाय करना। यह भी १५ कर्मादानों में एक कर्मादान है। श्रावक के लिए त्याज्य है। रहस्याभ्याख्यान-सत्याणुव्रत को मलिन करने वाला एक अतिचार। स्त्री-पुरुषों द्वारा एकान्त में किये गये कार्य-विशेष को प्रकाशित करना। अथवा किसी के मर्म को प्रगट करना। राग-(I) माया, लोभ, हास्य, रति-अरति, त्रिवेद, इन रागरूप द्रव्यकर्मों से जनित परिणाम राग-द्वेष हैं। (II) विचित्र चारित्रमोहनीय-विपाक-जनित प्रीति-अप्रीति राग और द्वेष कहलाते हैं। निर्विकार स्व-संवेदनस्वरूप वीतरागचारित्र के रोधक चारित्रमोह को भी राग-द्वेष कहते हैं। ___ रूक्ष-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में रूखा स्पर्श हो, उसे रूक्ष-नामकर्म कहते हैं। रूपस्थध्यान-जिस प्रकार शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है, उसी प्रकार शरीर से बाहर उसका जो ध्यान किया जाता है, उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं। वह दो प्रकार का है-स्वगत और परंगत। पंच-परमेष्ठियों के ध्यान का नाम परगत और शरीर से बाहर अपने आत्मा का ध्यान स्वगत रूपस्थ ध्यान है। परमेष्ठी के स्वरूप को उनके चित्र, मूर्ति या किसी प्रतीक में आरोपित करके उसका ध्यान करने को भी रूपस्थध्यान कहते हैं। . . रूपातीतध्यान-(I) वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शवर्जित ज्ञानदर्शनस्वरूप निरंजन निराकार चिदानन्दमय शुद्ध अमूर्त परमाक्षररूप आत्मा का (या परमात्मा का) आत्मा से ध्यान करना रूपातीतध्यान है। परन्तु इस ध्यान की योग्यता तभी आती है, जो साधक इससे पूर्व रूपस्थध्यान में अभ्यस्त व पारंगत हो चुका हो। (II) धर्मध्यान के तीनों सालम्ब ध्यानों का साधक पहले पूरा अभ्यास कर लेता है, तदनन्तर निरालम्ब रूपातीत ध्यान प्रारम्भ करता है। इसमें इन्द्रियाँ और मन लयलीन हो जाते हैं; ध्याता, ध्येय और ध्यान का विकल्प नहीं रहता, केवल अमूर्त, अज, अव्यक्त, निर्विकल्प, चिदात्मक आत्मा. का आत्मा से स्मरण करता है, उसे रूपातीत या रूपवर्जित, अरूपध्यान या गतरूपध्यान कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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