Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 659
________________ * पारिभाषिक शब्द कोष *५०५ * मोक्षमार्ग - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सहित राग-द्वेषरहित सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है। यही मोक्षोपाय है। मोह-मोहवेदनीय कर्म से आपादित अज्ञान - अविवेकरूप परिणाम मोह है। दर्शनमोहनीय की तीन तथा चारित्रमोहनीय की २५ (१६ कषाय और ९ नोकषाय ) इन कुल २८ प्रकृतियों का समूह मोहराज की सेना है। इन्हीं से व्यक्ति के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र की शक्ति कुण्ठित, आवृत, मूर्च्छित, मोहित हो जाती है। सामान्यतया दर्शन- चारित्रमोह द्वारा उपजनित अविवेक ही मोह है। मौखर्य-धृष्टता से मनमाने ढंग से ऊलजलूल बकवास करना, असभ्य, असत्य और असम्बद्ध बकवास करना मौखर्य है। यह श्रावक के ८वें अनर्थदण्ड- विरमणव्रत का एक अतिचार है। (य) यति-(I) जो संयम और योग में प्रयत्न करता है, वह । (II) जो पापरूप पाश को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील हो। (III) जो उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने के लिए प्रयत्न करता है, वह यति (संयति ) है । यति का अपरनाम महाव्रती साधु, श्रमण या भिक्षु है। यतिधर्म - (I) समस्त सावद्ययोगों से विरत होना। (II) निज - आगमोक्त धर्म का आचरण करना यतियों का निजधर्म है। यथाख्यातचारित्र - (I) समस्त मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय या उपशम हो जाने से आत्म-स्वभाव में अवस्थान हो जाना। (II) मोह के सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाने से यथाख्यातचारित्र होता है। भगवान् ने शुद्ध संयम ( चारित्र) का जैसा स्वरूप कहा है, वैसा ही आत्म-स्वभाव में पूर्णतया अवस्थान यथाख्यातचारित्र है । यथाख्यात - संयत- (I) अशुभ मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय हो जाने पर छद्मस्थ (११-१२वें गुणस्थानवर्ती साधक) अथवा जिन (१३-१४वें गुणस्थानवर्ती यथाख्यात- संयत कहलाते हैं। यथाजात बाह्य और आभ्यन्तर सभी परिग्रहों की चिन्ता से जो मुक्त हो चुका है, उसे यथाजात शिशु के समान निर्द्वन्द्व यथाजात कहते हैं । यथाप्रवृत्तकरण- जो करण यानी कर्मक्षपण का अतिशयित कारण, यथाप्रवृत्त है, यानी अनादि-सिद्ध प्रकार से प्रवृत्ति में आया है, वह यथाप्रवृत्तकरण कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार पर्वतीय नदी में पड़े हुए पाषाणों में से कुछ पाषाण किसी प्रकार के प्रयोग के बिना घर्षणवश स्वयमेव गोल हो जाते हैं, इसी प्रकार अनादिकाल से कर्मक्षपण के लिए जो अध्यवसाय में प्रवृत्त है, उनकी वह प्रवृत्ति यथाप्रवृत्तकरण कही गई है। यंत्रपीड़न कर्म - श्रावक के लिए त्याज्य १५ कर्मादानों में एक । तिल, सरसों, एरण्ड बीज आदि को यंत्र में पील कर तेल निकालने का व्यवसाय करना यंत्रपीड़न कर्म है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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