Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 657
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ५०३ * मिथ्याचार-बाह्यरूप से इन्द्रियों का दमन करके जो व्यक्ति मन ही मन इन्द्रिय-विषयों की लालसा, वासना करता रहता है, उसकी ऐसी प्रवृत्ति मिथ्याचार है। अथवा विशेष अभिप्राय एवं उद्देश्य से रहित असत्य आचरण करना। मिथ्यात्व-(1) जिनोपदिष्ट तत्त्वों पर संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रूप विमोह (मूढ़ता) रहना। (II) कुदेव पर देवबुद्धि, कुगुरु पर गुरुवुद्धि और कुधर्म पर धर्मबुद्धि रखना, तथा सुदेव, सुगुरु और सद्धर्म एवं सत्तत्त्वों के प्रति श्रद्धा न रखना मिथ्यात्व है। (III) तत्त्वार्थों पर अश्रद्धान मिथ्यात्व है, वह तीन प्रकार का है- संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत। इसे मिथ्यादर्शन भी कहते हैं। मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से जिसकी दृष्टि मिथ्या, विपरीत हो जाती है, वह मिथ्यादृष्टि या मिथ्यादर्शनी होता है। मिथ्यादृष्टि (मिथ्यात्व) गुणस्थान-(1) जिसके अनन्तानुबन्धी कपायचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन ७ प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम नहीं हुआ है, वे मिथ्यात्व गुणस्थान के अधिकारी हैं। (II) मिथ्यात्व के उदय से जिस जीव को औदयिकभाव होता है, उसके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। मिथ्याश्रुत-(I) जो श्रुत अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा स्वच्छन्द (अवग्रह-ईहारूप) बुद्धि से तथा (अवाय और धारणारूप) मति से कल्पित हो। (II) अप्रशमादि मिथ्या परिणाम से युक्त होने से, तथा वस्तुस्वरूप का विपरीतरूप से प्रतिभास होने से उसके द्वारा परिकल्पित श्रुत मिथ्याश्रुत है। मिथ्योपदेश-(I) स्वर्गादिरूप अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति के विषय में दूसरे को साम्प्रदायिक कट्टरता, अन्ध-विश्वास, चमत्कार आदि बातों से ठगना, विपरीत प्रवृत्ति कराना मिथ्योपदेश है। (II) प्रमाद से युक्त होते हुए बोलना, वस्तुस्वरूप से विपरीत उपदेश देना अथवा विवादास्पद विषय में कपटपूर्ण उपदेश करना मिथ्योपदेश है। मिश्रगुणस्थान-जिस प्रकार दही और गुड़ के स्वाद को पृथक् नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार सम्यक् मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ के मिथ्या श्रद्धान के साथ जो उसका सम्यक् श्रद्धान मिश्रित रहता है वह मिश्रगुणस्थान है। __ मिश्रभाव-) उपशम और क्षय उभयस्वरूपभाव कायम भाव कहते हैं। (II) कर्म के कुछ उपशम और क्षय के साथ देशाला या ईका काम बना रहने पर जो भाव उत्पन्न होता है, उसे मिश्र या क्षायांपर्शामक भाव कहते हैं। मुक्त-(1) जो जीव द्रव्यवन्ध और भाववन्ध दोनों से रहित हो चुके हैं। (il) जो ज्ञानावरणीयादि समस्त कर्मों से सर्वथा छुटकारा पा चुके हैं, वे मुक्त हैं। ___ मुक्ति-(1) बाह्य और आभ्यन्तर वस्तु-विषयक तृष्णा या लोभ के परित्याग का नाम मुक्ति है। दशविध श्रमणधर्म का द्वितीय धर्म आगमानुसार मुक्ति (मुत्ती) है। (II) सर्वकर्मों से, जन्म-मरणादि से, शरीरादि से तथा समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाना भी सिद्धिमुक्ति है। वह न तो अत्यन्त अभावरूप है, न जड़मयी है, न ही आकाशवत् व्यापक है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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