Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 656
________________ * ५०२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * परण-आयु के क्षय से प्राणों का वियोग होना। मरणभय-पंचेन्द्रिय, त्रिविधवल, उच्छ्वास-निःश्वास और आयु, इन दविध प्राणों के परित्याग का भय। मरणाशंसा-संलेखना-संथाराव्रत का एक अतिचार। रोगादि के आतंक से व्याकुल हो कर जीवन में संक्लेश को प्राप्त होने से अथवा सर्वत्र अनादर, निन्दा, उद्विग्नता आदि से घबरा कर शीघ्र मृत्यु हो जाने की आकांक्षा करना। मल-परीषहजय-सूर्य के प्रचण्ड ताप से पसीना आदि के आश्रय से शरीर मलिन हो जाने पर भी, मलसंचय से न घबरा कर उसका ऐसा प्रतीकार न करना, जिससे जलकायिक जन्तुओं को पीड़ा हो, उक्त परीषह-सहन करना मल-परीषह-विजय है। महादेव-जिसने राग-द्वेष-मोहरूपी महामल्लों को पराजित कर दिया हैं, महामोहादि दोषों को स्वेच्छा से नष्ट कर दिया है, जो संसाररूप महासमुद्र से पार हो चुका है, वही महादेव है। महाव्रत-जो महान् अर्थ (मोक्ष) को सिद्ध करते हैं, जो (पंचमहाव्रत) महापुरुषों के द्वारा आचरित-पालित हैं, जो स्वयं महान् हैं, उन हिंसादि पापों के सर्वथा त्यागरूप व्रतों को महाव्रत कहते हैं। महासुख-निःस्पृहता-बाह्य विषय-सुखों की आकांक्षा न करना महासुख का लक्षण है। मंगल-(I) जो पापरूप मल को गाल देता है-नष्ट कर देता है, वह। (II) जो ज्ञानावरणीयादि कर्ममल को गलाता है, वह। (III) जो मग = सुख लाता है-प्राप्त कराता है, वह। (IV) जिसके द्वारा अपना हित जाना या सिद्ध किया जाता है, वह मंगल है। ___ मंदभाव-बाह्य और आभ्यन्तर कारणों की अनुदीरणा से जीव का अनुन्कट परिणाम होना। माध्यस्थ्यभावना-(I) राग या द्वेष के वशीभूत हो कर पक्षपात न करना, मिथ्यादृष्टि, क्रूरकर्मी, देव-गुरु-धर्म-शास्त्रनिन्दक, मद्य-माँसादिलुब्धक, पापाचारी, नास्तिक आदि के प्रति मध्यस्थ-तटस्थ रहना, उपेक्षाभाव रखना, कदाचित् मौन रखना, उसके साथ वाद-विवाद में न उतरना। ___ मित्रानुराग (संलेखना-संथाराव्रत का एक अतिचार)-पूर्वजन्म के या इस जन्म के जो भी मित्र, सुहृत, स्वजन-परिजन-कुटुम्बीजन हैं उन सभी प्रेमियों (लौकिक स्वार्थरत जनों) के प्रति अनुरागभाव, आसक्तिभाव ला कर आर्त्तध्यान करना आमरण समाधिमरण (संथाराव्रत) का दोष है। मिथ्याकार-गृहीत व्रतों, नियमों में दोष लग जाने, अपराध या भूल हो जाने पर यह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' इस प्रकार पश्चात्तापपूर्वक कहना मिच्छाकार है। साधु की दविध समाचारी का एक अंग है यह। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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