Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 650
________________ * ४९६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * भावनिद्रा-सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से रहित होना भावनिद्रा है। भावनिर्जरा-(I) कर्मशक्ति की निर्जरा (देशतः क्षय) करने में जो समर्थ है, वारह प्रकार के तप से वृद्धिंगत शुद्धोपयोग-संवरपूर्विका भावनिर्जरा है। (II) रागादि विभावों का आत्मा से पृथक् (विश्लिष्ट) हो जाना भावनिर्जरा है। (III) आत्मा के शुद्ध भाव से जो भुक्त रस विशिष्ट (पूर्वबद्ध) कर्म का शीघ्र ही नष्ट हो जाना भावनिर्जरा है। (IV) पुद्गलों की कर्मत्वपर्याय का विनष्ट होना भी भावनिर्जरा है। ___ भावपुण्य-शुभ परिणाम पुण्य है, उसका कर्ता जीव (आत्मा) है। यह शुभ परिणाम (शुभ भाव) ही द्रव्य-पुण्य का निमित्त बनता है। इस कारण उसे शुभानव क्षण के बाद शुभभावरूप भावपुण्य कहा जाता है। ____ भावपूजा-तीर्थंकर, अरिहन्त, सिद्ध आदि की वचन से स्तुति, स्तवन या स्तोत्र द्वारा गुणोत्कीर्तन करना, मन से उनके गुणों का स्मरण करना, स्वयं में वे गुण आवें, इस प्रकार की भावना करना भावपूजा है। भावबन्ध-उपयोगस्वरूप जीव (आत्मा) पंचेन्द्रिय-विषयों को पा कर उनमें मूढ़, आसक्त या राग-द्वेष करता है। इन विभावों के साथ आत्मा (जीव) का जो (संयोग) सम्बन्ध होता है, उसे भावबन्ध कहते हैं। भावमोक्ष-(I) समस्त कर्मों के क्षय को भावमोक्ष कहते हैं। (II) जो आत्मा का परिणाम सर्वकर्मक्षय का कारण है, वह भावमोक्ष है। भावलेश्या-कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवत्ति भावलेश्या है। भावविशुद्धि-अन्तःकरण की निर्मलता-निष्कल्मषता का नाम भावविशुद्धि है। भावश्रुत-(I) इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो श्रुत के अनुसार विशेष ज्ञान होता है, वह भावश्रुत कहलाता है। (II) अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव भी भावश्रुत है। (III) क्षयोपशमलब्धि का नाम भी भावश्रुत है। भावसमाधि-ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपरूप समाधि को भावसमाधि कहते हैं। भावसंवर-(I) संसार की कारणभूत क्रियाओं से जो निवृत्ति होती है, वह भावसंवर है। (II) जीव का गुप्ति आदि परिणाम को प्राप्त होना भावसंवर है। (III) इन्द्रियरूप छिद्रों द्वारा जीवरूप नौका में प्रविष्ट होने वाले कर्मजल को समिति आदि द्वारा रोक देना भी भावसंवर है। भावसामायिक-अपने समान दूसरों को दुःखित न करने का अभिप्राय रखना, इष्ट से न राग रखना, न ही अनिष्ट से द्वेष रखना. राग-द्वेष के मध्य में रहना साम = भावसामायिक है। रत्नत्रयरूप समीचीन भाव का आत्मा में प्रवेश कराना भावसामायिक है। ___ भावेन्द्रिय-(I) (इन्द्रियत्व की) लब्धि और उसके उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। अर्थग्रहण करने की शक्ति का नाम लब्धि है और अर्थग्रहण करने के प्रति जो व्यापार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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