Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 648
________________ * ४९४* कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * भक्ति - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, बहुश्रुत, प्रवचन, साधु-साध्वी, संघ आदि के प्रति भावविशुद्धियुक्त अनुराग (प्रशस्तराग ) भक्ति है। भयसंज्ञा - (I) सात प्रकार के भयों में से किसी भी भय से मन में चिन्तित - शंकित, रहना भयसंज्ञा है। (II) किसी निमित्त से या बिना निमित्त के भी जो भीति उत्पन्न होती है, वह भय है, उसकी संज्ञा यानी वृत्ति भयसंज्ञा है। अतिशय भयानक पदार्थ के देखने से, उधर बार-बार उपयोग के जाने से, बल की हीनता से, भयमोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से, भय के अभिप्रायरूप जीवपरिणाम होना भयसंज्ञा है । भय- नोकषाय-जिस कर्म के उदय से प्राणी को उद्वेग, तनाव, डर आदि हुआ करता है, वह भयनोकषाय कर्म है । जिस कर्म के उदय से जीव को सप्तविध भय उत्पन्न होते हैं, वह भय-नोकषाय कर्म है। इसे भयमोहनीय, भयवेदनीय आदि भी कहते हैं । भव - (I) भव कहते हैं - जन्म-मरणादिरूप संसार को । आयुष्यकर्म के उदय के निमित्त से जो जीव की (जन्म-मरणादि) अवस्था होती है, वह भव (संसार) है | (II) जिसमें प्राणी अपने आयुकर्म की स्थिति पूर्ण होने तक रहते हैं, वह भव है। भवनवासी-भवनपति देव - (I) जो देव स्वभावतः भवनों में निवास करते हैं, वे भवनवासी या भवनपति देव कहलाते हैं | (II) भवनवासी - नामकर्म के उदय से भवनों में रहने वाले देवी-देवों को भवनपति या भवनवासी कहते हैं। इनके दस प्रकार हैंअसुरकुमार, नागकुमार आदि । भव-प्रत्यय ( भवधारणीय) अवधिज्ञान - प्राणी जिसमें कर्म के वशीभूत हो कर जन्म-मरण करते हैं, उसका नाम भव है। जो नारक - देवादि अवस्थारूप भव जिस अवधिज्ञान का कारण है, वह भवप्रत्यय या भवधारणीय अवधिज्ञान कहलाता है। वह देवों और नारकों को जन्म से ही होता है। मिथ्यादृष्टि को विभंगज्ञान और सम्यग्दृष्टि को अवधिज्ञान । भवविपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ- अपने - अपने योग्य नारक आदि भव में जो कर्मगत फल देने की अभिमुखता होती है, उसका नाम भवविपाक है। जिन कर्मप्रकृतियों का विपाक ( फलदानोन्मुखता ) उचित भव की प्राप्ति होने पर ही होती है, वे भवविपाकिनी कर्मप्रकृतियाँ कहलाती हैं। भव्य - अनादि पारिणामिक भव्यत्व नामक भाव के कारण से मुक्ति प्राप्त करने योग्य जीव । भवसिद्धिक- भविष्य में जिन जीवों को सिद्धि (मुक्ति) होने वाली है, वे भवसिद्धिक या भव्य कहलाते हैं। अभव्य को मुक्ति नहीं होती । वह उपरिम नवग्रैवेयक तक जा सकता है, किन्तु रहता है, संसार के जन्म-मरण के चक्र में ही । भवस्थ - केवलज्ञान-मनुष्यभव में स्थित जीव के चार अघातिकर्म क्षीण न होने पर, अर्थात् उनके विद्यमान रहते हुए, जो केवलज्ञान होता है, वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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