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कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष *
६ प्रकार का तपश्चरण सम्यक् बाह्यतप है। शर्त यह है कि उस वाह्यतप से किसी का अनिष्ट या अमंगल न हो, उस तप से आर्त्त-रौद्रध्यान न हो, मन में दुष्ट विचार न आयें, तत्त्वविषयक श्रद्धा प्रादुर्भूत हो, मन-वचन-काया के योग क्षीण न हों।
बीजबुद्धि-(I) न जोइन्द्रिय-मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय, इन तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट क्षयोपशम से युक्त किसी महर्षि की जो बुद्धि संख्यात शब्दों में लिंगयुक्त एक ही बीजपद को दूसरे के उपदेश से प्राप्त करके उसके आश्रय से समस्त श्रुत को ग्रहण कर लेती है, उसे बीजबुद्धि नामक लब्धि (ऋद्धि) कहते हैं। (II) दिखलाये गये पद, प्रकरण, उद्देश और अध्याय आदि के आश्रय से जो बुद्धि समस्त अर्थ का अनुसरण किया करती है, उसका नाम बीजबुद्धि ऋद्धि है।
बीजरुचि (सम्यक्त्व)-जाने हुए एक पद के आश्रय से जल में तेल की बूँद के समान जो रुचि या तत्त्व-श्रद्धा फैलती है, उसे बीजरुचि या बीज-सम्यक्त्व कहते हैं।
बुद्धबोधित-(I) बुद्ध का अर्थ यहाँ आचार्य है. आचार्यों के द्वारा जो प्रवोध को प्राप्त हुए हैं, वे बुद्धबोधित कहलाते हैं। (II) अथवा जिसने सिद्धान्त और संसार के स्वभाव को जान लिया है, उनके द्वारा प्रबोध को प्राप्त हुए वुद्धबोधित कहलाते हैं।
बुद्धबोधित-सिद्ध-जो पूर्वोक्त प्रकार से बुद्धबोधित हो कर सिद्ध (मुक्त) हुए हैं. वे!
बुद्धि-(I) जिसके द्वारा ऊहित = ईहा के द्वारा तर्कित-पदार्थ का निश्चय होता है, उसका नाम बुद्धि है। यह अवाय नामक मतिज्ञान का समानार्थक शब्द है। (II) पदार्थ को ग्रहण करने और जानने की शक्ति को वृद्धि कहते हैं। ऐसी बुद्धि औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी के भेद से चार प्रकार की है। ___ बुद्धि-सिद्ध-(I) जो पूर्वोक्त चार प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न हो, उसे बुद्धि-सिद्ध कहते हैं। (II) अथवा जिसकी बुद्धि एक पद से अनेक पदों का अनुसरण करने वाली, संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप मल से रहित हो, तथा सूक्ष्म-अतिशय दुःखबोध्य पदार्थों को जानने में समर्थ हो, वह बुद्धि-सिद्ध कहलाता है।
बोधि-(I) जिनोपदिष्ट धर्म की प्राप्ति का नाम बोधि है। यह उस सम्यग्दर्शनस्वरूप है, जो यथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन तीन करणों के व्यापार के द्वारा पूर्व में नहीं भेदी गई ग्रन्थि के भेदन से प्रकट होता है तथा जिसके आविर्भूत होने पर प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण प्रकट हो जाते हैं। (II) पूर्व में नहीं प्राप्त हुए (भलीभाँति नहीं समझे हुए) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के यथार्थ बोध, उसकी प्राप्ति में साधक-बाधक तत्त्वों का सम्यक् बोध का प्राप्त होना बोधिलाभ है।
बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा-(I) जिस उपाय के द्वारा पूर्वोक्त बोधिलाभ प्राप्त होता है, वह अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार की बोधिलाभ की दुर्लभता का बार-बार चिन्तन करना बोधिदुर्लभत्वानुप्रेक्षा या बोधिदुर्लभभावना है। (II) इस अनादि संसार में जीव को एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के भव में वोधि का नाम तक नहीं सुना गया, पंचेन्द्रिय तिर्यंचभव में
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