Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 644
________________ * ४९० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * बन्धन-अष्टविध कर्मों को बाँधना बंधन है। बन्धनकरण (बन्ध नामक करण)-कर्मपुद्गलों को प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप से योगों और कषायों से परिणमाने की जो क्रिया (प्रक्रिया) है, उसे बन्धनकरण कहते हैं। बन्धन नाम-शरीर-नामकर्म के उदय से प्राप्त पुद्गलों के प्रदेशों का परस्पर सम्बन्ध (एकरूपता) जिस कर्म के आश्रय से होता है, उसे बन्धन-नामकर्म कहते हैं। बन्ध-विधान-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद को प्राप्त बन्ध के विकल्पों का नाम बन्ध-विधान है। बन्ध-स्थान-(I) एक जीव के एक समय में जो अनुभाग दिखता है, वह स्थान कहलाता है। बन्ध से जो स्थान निर्मित होता है, उसे बन्ध-स्थान कहते हैं। (II) पूर्वबद्ध अनुभाग का घात (रसघात) करते समय जो बन्धानुभाग के समान स्थान होता है, उसे भी बन्ध-स्थान कहा जाता है। बहिरंग-धर्मध्यान-पंच-परमेष्ठियों की भक्ति आदि के साथ उनके अनुकूल उत्तम (धर्म) आचरण करना बहिरंग-धर्मध्यान है। बहिरात्मा-(I) जो शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्रादि तथा :राग-द्वेषादिरूप विभाव (विभावचेतनारूप) परिणति को आत्म-स्वरूप मानता है, तथा इन्द्रिय-विषयजनित सुखादि को आत्मिक-सुख मान कर उन्हीं मूढ़ बुद्धि हो कर रमता है एवं वस्तुस्वरूप को नहीं जान कर 'यह सब अतिशय कष्टदायक हैं'; ऐसा विचारता है, जबकि इन्द्रिय-विषयसुख आत्मा के लिए भविष्य में दुःखदायक है, ऐसा विचार नहीं करता, उसे बहिरात्मा समझना चाहिए। (II) देहादि में आत्म-बुद्धि होना बहिरात्मभाव है। (III) विषय-कषायों में रचे-पचे रहना, जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान न करना, गुणों के प्रति द्वेष करना और आत्म-स्वरूप को न जानना; ये बहिरात्मा के लक्षण हैं। ___ बहिःपुद्गल-प्रक्षेप-दशवें देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार। मर्यादित देश (क्षेत्र) के बाहर प्रयोजन उपस्थित होने पर दूसरों को सम्बोधित करने–बुलाने के लिए कंकर आदि फेंकना। बहु-अवग्रह (मति-श्रुतज्ञान का एक भेद)-बहुत-से पदार्थों का एक बार में ग्रहण होना बहु-अवग्रह नामक मति-श्रुतज्ञान है। बहुविध-अवग्रह-एक बार में अनेक प्रकार के पदार्थों का ग्रहण करना। बहुश्रुतता-(I) युगश्रेष्ठ आगमों, उनकी व्याख्याओं, रहस्यों एवं धारणाओं का ज्ञान बहुश्रुतता है। (II) अथवा बारह अंगों का पारगामी ज्ञान होना बहुश्रुतता है। बहुश्रुत-भक्ति (तीर्थंकर-नामकर्म का एक कारण)-(I) पूर्वोक्त बहुश्रुतों के द्वारा व्याख्यात (उपदिष्ट) आगमों और ग्रन्थों का पारायण करना, पंचांगसहित स्वाध्याय करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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