Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 643
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४८९ * इस प्रथा या रूढ़ि को चलाया था। मैं इसे कैसे छोड़ दूं? इस प्रकार की भ्रान्ति, मिथ्यात्व एवं अज्ञान के वश उसे पकड़े रखना पूर्वाग्रह है, यह सम्यग्दर्शन में, सत्यनिष्ठा में, सत्याचरण में बाधक है। कर्मबन्ध का कारण है। प्रतिसंलीनता-बाहर विषयों में भटकती हुई इन्द्रियों, हिंसादि प्रवृत्त होते हुए अंगोपांगों और योगों को कषायादि विकारों में दौड़-धूप करते हुए मन को बहिर्मुखी होने से बचा कर अन्तर्मुखी बनाना, पर-भावों से हटा कर स्वभाव में, आत्म-गुणों में लीन करना प्रतिसंलीनता है। यह छठा बाह्यतप है। फलदान-शक्ति-अनुभागबन्ध के द्वारा कर्मों में फल देने की शक्ति स्वतः पैदा हो जाती है। सफल और अफल का रहस्यार्थ-जो अबुद्ध हैं, किन्तु धन या सत्ता के अधिपति हैं इसलिए महाभाग्यशाली दिखते हैं, लड़ाइयों में वीरता दिखाने के कारण उन्हें लोग वीर कहते हैं, किन्तु हैं वे असम्यक्त्व (मिथ्यात्व) दर्शी-यानी मिथ्यात्वदृष्टि से ग्रस्त। अतएव उनको कृतक पापकर्मों के कारण उनका सब पराक्रम अशुद्ध और कर्मफलयुक्त होने से सफल (फलयुक्त) होता है, जबकि जो प्रबुद्ध महाभाग कर्मविदारण में वीर हैं, सम्यग्दृष्टि (सम्यक्त्वदर्शी) हैं, उनका सारा पराक्रम शुद्ध है, और कर्मफल से रहित (अफल) होता है। ___ फलदाता-कर्मों का फलदाता न तो कोई ईश्वर है, न ही कोई देवी-देव या सरकार, किन्तु युक्तिपूर्वक सोचा जाये तो कर्म स्वयं ही अपना फलदाता है। मनुष्य चाहे, या न चाहे, आखिर कर्म ही उसे फल देता है। शुभ कर्म (पुण्य) का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ मिलता है। ___बकुश (निर्ग्रन्थ का एक प्रकार)-जो निर्ग्रन्थता पर आरूढ़ हो कर अखण्डित रूप से व्रतों का पालन करते हुए शरीर और उपकरणों की स्वच्छता और साज-सज्जा में ही लगे रहते हैं, लथा परिवार से भी जिनका मोह नहीं छूटा, वे साधक बकुश कोटि के निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। . बन्ध (कर्मबन्ध)-(I) आत्म-प्रदेशों और कर्मपुद्गलों का क्षीर-नीरवत् एक-दूसरे में परस्पर आश्लिष्ट हो जाना बन्ध है। (II) आसवों द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ संयोग हो जाना बन्ध है। (III) कषाय से संयुक्त प्राणी योग के आश्रय से कर्मरूप में परिणत होने के योग्य जो (कर्म) पुद्गलों का ग्रहण करता है, वह बन्ध कहलाता है। ____बन्ध (श्रावक के अहिंसाणुव्रत का प्रथम अतिचार)-(I) किसी पशु आदि को गाढ़ बन्धन से बाँध देना, जिससे आकस्मिक संकट आने पर तत्काल खुल न सके, वह बन्ध नामक अतिचार (दोष) है। (II) हाथी आदि को पकड़ने के लिए खोदे गये गड्ढे में उनके फँस जाने पर साँकल या रस्सी से बाँध देना भी बंध है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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