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* ४६२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
जिन्होंने कड़वे तुम्वे का साग उदरस्थ करके जीवों की दया के लिए अपना देह-व्युत्सर्ग कर दिया था।
धर्मानुप्रेक्षा-अहिंसा जिसका लक्षण है, सत्य से जो अधिष्ठित है, विनय जिसका मूल है, क्षमा बल है, ब्रह्मचर्य से जो सुरक्षित है, उपशमनप्रधान है, और जिसका आलम्बन अपरिग्रहता है, इत्यादि रूप जिनोपदिष्ट धर्म है। इसके बिना जीव संसार में परिभ्रमण करते हैं, और उसे पा कर वे अनेक अभ्युदय के साथ मोक्ष को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार बार-बार अनुचिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है।
धर्म के प्रकार-(I) उपासनात्मक धर्म-धर्म की केवल उपासना धर्मक्रियादि द्वारा कर लेना आचरण में लाने का कोई विचार न हो, वह। (II) आचरणात्मक धर्म-धर्म के. . अहिंसादि विविध अंगों का सम्यग्ज्ञान-दर्शनपूर्वक आचरण हो, साथ में यथाशक्य उपासना भी हो। (III) द्रव्यधर्म-भाव = अध्यवसाय परिणाम से रहित धर्मपालन करना, भावधर्मअध्यवसायों की शुद्धिपूर्वक रत्नत्रयादि धर्म का आचरण। भोगमूलक धर्म-सत्य-अहिंसादि या सामायिक, पौषध, व्रत आदि धर्माचरण फलाकांक्षा, भोगाकांक्षा के निदानपूर्वक करना भोगमूलक धर्म है, जबकि सम्यग्दृष्टि द्वारा निदान तथा फलाकांक्षारहित हो कर कर्मक्षयकर्मनिरोध की दृष्टि से संवर-निर्जरायुक्त धर्म का आचरण मोक्षमूलक धर्म है।
धर्म-भ्रान्ति-शुद्ध धर्म और पुण्य को एक समझने से धर्म-भ्रम या धर्म-भ्रान्ति होती है। धर्म कर्मक्षय या कर्मनिरोध का कारण है, पुण्य संसार का मार्ग है, शुभ कर्मों के आस्रव और बंध का कारण है।
धर्ममूढ़ता-कट्टरता, साम्प्रदायिकतावश दूसरे धर्म-सम्प्रदायों की निन्दा, ईर्ष्या, द्वेष करना, अपने धर्म-सम्प्रदायों की झूठी प्रशंसा करना, धर्म के नाम पर हिंसा, झूठ, व्यभिचार, पशुबलि, नरबलि, अन्ध-विश्वास, खोटे रीति-रिवाज आदि चलाना धर्ममूढ़ता है।
धर्मास्तिकाय देश-प्रदेश-धर्मद्रव्य के बुद्धि से कल्पित दो आदि प्रदेशस्वरूप विभाग को धर्मास्तिकाय-देश कहते हैं। इसी के निर्विभागी अंशों को धर्मास्तिकाय- प्रदेश कहते हैं।
धारणा-(I) अवाय से जाने हुए पदार्थ (गृहीत पदार्थ) को कालान्तर में नहीं भूलने का जो कारण (स्मृति-हेतु) है, वह धारणा है। (II) विषय के अनुसार प्रतिपत्ति-गृहीत अर्थ-विषयक उपयोग के अविनाश, मति में अवस्थान, अन्यत्र उपयोग जाने पर लब्धिरूप में धारणारूप मति की विद्यमानता और अवधारण को धारणा कहते हैं। (III) धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा, प्रतिष्ठा और धारण, ये सब समानार्थक शब्द हैं। (IV) मतिज्ञान का एक भेद।
धारणावरणीय कर्म-इस धारणारूप मतिज्ञान का आच्छादन करने वाला कर्म धारणावरणीय कर्म है।
धारणा-व्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुष-प्रतिसेवना के विषय में अवलोकन करके भवभीरु गीतार्थ (आगमों या छेदसूत्रों के विज्ञों या आचार्य के द्वारा
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