Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 628
________________ * ४७४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * परा-प्राप्ति-(I) सब कर्मों के नष्ट हो जाने पर जो शुद्ध आत्म-भाव की प्राप्ति होती है, वह। (II) अथवा कर्मजनित औदयिकादि भावों का अभाव हो जाने पर जो प्राप्ति होती है, वह परा-प्राप्ति कहलाती है। परावर्तमाना (कर्मप्रकृतियाँ)-वे कहलाती हैं, जो दूसरी प्रकृतियों के बन्ध, उदय अथवा बन्धोदय दोनों को रोक कर अपना बन्ध, उदय और बन्धोदय करती हैं। दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम और गोत्र की कुल ९१ कर्मप्रकृतियाँ परावर्तमाना हैं। शेष २९ प्रकृतियाँ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, नाम, अन्तराय और मोहनीय की अपरावर्तमाना हैं, जो दूसरी प्रकृतियों के बन्ध, उदय और बन्धोदय को रोकती नहीं हैं। ___ परिकर्म-(I) द्रव्य के गुण-विशेष का परिणमन करना। (II) योग्यता को उत्पन्न करना, शरीरादि को संस्कारित करना। इसे व इसके कारणभूत शास्त्र को भी परिकर्म कहा जाता है। (III) जिस ग्रन्थ में गणित-विषयक करणसूत्र उपलब्ध होते हैं, वह भी परिकर्म कहलाता है। परिगृहीता-(I) जिस स्त्री का स्वामी एक पुरुष होता है, वह। (II) जिसके साथ विधिवत् पाणिग्रहण किया गया है, वह परिगृहीता कहलाती है। परिग्रह-(I) चेतन और अचेतन वस्तु के प्रति 'यह मेरी है', ऐसी ममता, अहंता, मूर्छा रखी जाये, मूर्छावश स्वामित्व स्थापित किया जाये, या संगृहीत किया जाये, वह परिग्रह है। (II) संयम-यात्रा के लिए धर्मोपकरण को छोड़ कर अन्य वस्तुओं का स्वीकार करना, उन पर ममत्व रखना परिग्रह है। चेतन-अचेतन बाह्य तथा आभ्यन्तर द्रव्यों के प्रति ममत्व बाह्य परिग्रह है तथा मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रह है। शास्त्र में तीन प्रकार के परिग्रह-स्रोत बताये गये हैं-शरीर, कर्म और उपधि। इन तीनों के प्रति ममता-मा रखना महापरिग्रह है। परिग्रहक्रिया-विविध उपायों से भोगोपभोग की सामग्री का उपार्जन करना, उनका रक्षण करना और उनमें मूर्छा रखना परिग्रहक्रिया है। परिग्रह-त्याग-महाव्रत-क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य-सुवर्णादि दस प्रकार के बाह्य तथा मिथ्यात्व आदि १४ प्रकार के अन्तरंग परिग्रह (ग्रन्थ) का तीन करण, तीन योग से त्याग करना परिग्रह-त्याग-महाव्रत है। ___ परिग्रह-परिमाण-अणुव्रत-दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का परिमाण (मर्यादा) करना, उससे अधिक में इच्छा न रखना परिग्रह-परिमाणव्रत या इच्छा- परिमाणव्रत भी है। परदारगमन-अपनी परिगृहीता पत्नी के सिवाय अन्य स्त्री (भले ही वह विधवा हो, कुलटा हो, वेश्या हो, कुँवारी हो) के साथ गमन = सहवास करना परदारगमन है। पर-निन्दा-दूसरों के विद्यमान, अविद्यमान दोषों को प्रकट करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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