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* पारिभाषिक शब्द कोष * ४७३ *
पंचेन्द्रिय जाति-नामकर्म - जिस कर्म के उदय से जीवों में पंचेन्द्रिय जाति-स्वरूप से समानता हो, उसे पंचेन्द्रिय जाति-नामकर्म कहते हैं।
पण्डित - (I) जो पाप से डीन यानी दूर रहता है, वह पण्डित है। (II) जो इन्द्रिय और मन के विषयों की आसक्ति से खण्डित (स्खलित) न होता हो, वह पण्डित है | (III) वमन किये हुए भोगों को आसेवन करने के दोष के ज्ञाता पण्डित हैं। (IV) जो आत्मानुभूतिरूप परम समाधि में स्थित होकर शरीर से भिन्न ज्ञानमय परमात्मा (शुद्ध आत्मा) को जानता है, वह पण्डित = अन्तरात्मा होता है। (V) जिसके पण्डा = बुद्धि उत्पन्न हो गई हो, वह पण्डित है।
सत्-असत्-विवेकशालिनी
पण्डितमरण- पण्डितों (विरतों) पण्डितमरण है।
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संयतों का मरण (समाधिपूर्वक मृत्यु )
पदस्थध्यान-धर्मध्यान का एक प्रकार । (1) पंचपरमेष्ठियों से सम्बद्ध एक अक्षर या पद का जो जाप किया जाता है, वह । (II) स्वाध्याय, ( नवकारादि) मंत्र - पद गुरु या देव की स्तुति में जो चित्त की एकाग्रता होती है, वह पदस्थध्यान है। पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, वह पदस्थध्यान है।
पदानुसारी लब्धि ( ऋद्धि) - (I) किसी एक पत्र को दूसरे से सुन कर आदि, अन्त अथवा मध्य में शेष समस्त ग्रन्थ का जान लेना । 11 जो एक सूत्रपद के द्वारा बहुत से श्रु का अनुसरण कर लेता है, उसकी इस लब्धि को पदानुसारी लब्धि या ऋद्धि कहते हैं ।
· पद्मलेश्या - त्यागी, भद्रपरिणामी, पवित्र, सरल व्यवहार करने वाला, क्षमाशील और साधुवर्ग एवं गुरुजनों की भक्ति में निरत व्यक्ति पद्मलेश्या का अधिकारी होता है।
पद्मासन- काय - क्लेश तप का एक साधन । जंघा के मध्य भाग में जहाँ जंघा से संश्लेष = सम्बन्ध होता है, वह पद्मासन कहलाता है।
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परकायशस्त्र-वनस्पतिकाय से भिन्न पत्थर, अग्नि आदि (एक स्थावर जीव के लिए दूसरे ) परकायशस्त्र कहलाते हैं (द्रव्य-निक्षेप की अपेक्षा ) ।
परभाव - आत्मा के स्वभाव से भिन्न सजीव-निर्जीव सभी परभाव हैं।
पराघात-नाम-परघात-नाम - (I) जिस नामकर्म के उदय से जीव दूसरों को त्रास देता प्रतिघात आदि करता है, उसे पराघात - नामकर्म कहते हैं | (II) जिसके निमित्त से दूसरे शस्त्र आदि से घात होता है, वह परघात नामकर्म है। (III) जिस कर्म के उदय से शरीर में दूसरे का घात करने वाले पुद्गल (जैसे- सर्प की दाढ़ें आदि) उत्पन्न होते हैं, उसे मी परघात-नामकर्म कहते हैं | (IV) जिस कर्म के उदय से कोई दर्शनमात्र से ही ओजस्वी (दीप्तिमान्) होता है, जिसे देखकर दूसरा ( प्रतिपक्षी) पराभूत हो जाता है । (V) अथवा जो सभा में वचनचातुर्य से, आकर्षण से सभ्य जनों को त्रस्त कर देता है, या दूसरों को आघात पहुँचाता है, उसे भी पराघात - नामकर्म कहते हैं।
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