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* ४७८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
परोक्ष-(I) इन्द्रिय, मन, परोपदेश और प्रकाश आदि के निमित्त से होने वाला पदार्थ का ज्ञान परोक्ष कहलाता है। (II) अक्ष यानी जीव की द्रव्य इन्द्रियाँ और मन चूंकि पुद्गल-कृत हैं, अतः वे 'पर' हैं-उससे भिन्न हैं, उनसे जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष कहलाता है। जैसे-अनुमान।
पर्याप्ति-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन की शक्तियों की उत्पत्ति का नाम पर्याप्ति है। वैसे पर्याप्ति वह तभी समझी जाती है, जब उस-उस शक्ति की पर्याप्त निष्पत्ति हो जाती है। पर्याप्ति नामक शक्ति पुद्गल द्रव्य के उपचय से उत्पन्न होती है।
पर्याप्ति-नामकर्म-(I) जिस कर्म के उदय से आहारादि पर्याप्तियों की रचना हो।
पर्याप्त-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव यथायोग्य चार, पाँच और छह पर्याप्तियाँ पा कर पर्याप्त होते हैं, उसे पर्याप्त या पर्याप्तक-नामकर्म कहा जाता है। (II) अथवा पर्याप्तियों के उत्पादक कर्म को पर्याप्त-नामकर्म कहते हैं।
पर्याय-(I) किसी भी वस्तु की उत्पत्ति और व्यय (विनाश) का नाम पर्याय है। (II) एक ही वस्तु के पर्याय क्रमभावी होते हैं। जैसे-चेतन के सुख-दुःख आदि, अचेतन के कोश, कुशूल आदि। मिट्टी के घड़ा, सुराही, हांडी आदि। (III) इन्द्र के ईन्दन, शकन आदि भावान्तर तथा इन्द्र, शक्र आदि संज्ञान्तरों को पर्याय कहा जाता है।
पर्यायस्थविर-जिसे दीक्षा लिए हुए २० आदि वर्ष हो चुके हैं, उस साधु या साध्वी को पर्यायस्थविर या पर्यायस्थविरा कहते हैं। इसे दीक्षास्थविर भी कहते हैं।
पर्यायार्थिक नय-जिस नय का प्रयोजन पर्याय है, अर्थात् जो पर्याय को विषय करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। इसे पर्यायास्तिक नय भी कहते हैं।
पर्युषणकल्प-वर्षाकाल के चार मासों में अन्यत्र गमन न करके एक ही स्थान में रहना, पर्युषणकल्प नामक दसवाँ कल्प, स्थविरकल्पी साधुओं के लिए है।
पात्र-(I) जो ज्ञान और संयम में लीन हैं, जिनकी दृष्टि दूसरी ओर नहीं है, जो एकमात्र आत्मा की ओर ही दृष्टि देते हैं, जितेन्द्रिय हैं, धीर हैं, ऐसे लोक में जो सर्वश्रेष्ठ श्रमण (साधु) हैं, वे पात्र माने गये हैं। (II) जो सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, मान-अपमान में सम (राग-द्वेष से रहित) हैं, वे पात्र हैं। इसके तीन प्रकार आचार्यों ने किये हैं-उत्तम सुपात्र-साधुवर्ग, मध्यम पात्र-श्रावकवर्ग और जघन्य पात्र-मार्गानुसारी, साधर्मी या नीतिमान् गृहस्थ। अनुकम्पापात्र भी जघन्यतर पात्र कहा जा सकता है।
पादपोपगमन अनशन-(I) कटा हुआ वृक्ष जैसे बिलकुल हलन-चलन नहीं करता, इसी प्रकार जिस समाधिमरण में वृक्ष के समान शरीर को स्थिर रखा जाता है, शरीर का परिकर्म आदि भी नहीं किया जाता, दूसरे साधक से शुश्रूषा भी नहीं ली जाती, उसे पादपोपगमन संथारा (अनशन) कहते हैं। (II) इसे पादोपगमन मरण भी कहते हैं, जिसका अर्थ किया गया है-पावों से चलकर योग्य देश का आश्रय लेने पर जो मरण होता है।
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