Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 631
________________ * पारिभाषिक शब्द - कोष ४७७ --- परिग्रहसंज्ञा - विषयभोग की सामग्री के देखने से, उधर उपयोग के जाने से. आत से और लोभकषाय की उदीरणा से ममत्व - बुद्धिपूर्वक जो परिग्रहविषयक अभिलाषा होती है, उसका नाम परिग्रहसंज्ञा है। परिणाम - (1) एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना, परिणत होना। (II) धर्मादि द्रव्यों का तथा गुणों का स्वभाव स्वतत्त्व परिणाम है। (III) अध्यवसाय - विशेष का नाम भी परिणाम है | (IV) किसी कार्य के फल या नतीजे को भी परिणाम कहते हैं। परिणाम-विशुद्ध प्रत्याख्यान - जो प्रत्याख्यान राग-द्वेषरूप चित्तवृत्ति से दूषित न हो, उसे भाव-विशुद्ध अथवा परिणाम - विशुद्ध प्रत्याख्यान कहते हैं। परिभोग - जिस वस्तु को बार- बार भोगा जाये - सेवन किया जाये, वह परिभोग है ! उपभोग है-जिसे एक बार भोगकर छोड़ दिया जाये, वह । परिभोग राय - जिस कर्म के उदय से परिभोग में अन्तराय - विघ्न-बाधाएँ आती हैं, उसे परिभोगान्तराय कर्म कहते हैं। परिवर्तन-परियट्टण-पर्यटना - स्वाध्याय तप का एक अंग । पठित भावागम का विस्मरण न हो, इसके लिए उसका बार-बार परिशीलन, अभ्यास, गुणन या आवर्तन किया जाये। बार-बार आवृत्ति करना परिवर्तना या पर्यटना है। परिव्राजक - सब ओर से पापों का वर्जन = परित्याग करते हुए जो गमन करता है या प्रवृत्ति करता है, वह यथार्थ परिव्राजक है। परिषह परीषह - (I) आत्म-साधना में उपस्थित अनुकूल-प्रतिकूल, या शारीरिक-मानसिक पीड़ाएँ (बाँधाएँ) सही जायें, उसका नाम परिषह है। क्यों सही जायें ? स्वीकृत रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग से धर्ममार्ग से च्युत-भ्रष्ट - स्खलित न हो जायें इसलिए, तथा ये बाधाएँ - पीड़ाएँ सकामनिर्जरा करने का अवसर देने आई हैं, ऐसा दीर्घदृष्टि से विचार करके मन में आर्त्तध्यान अथवा संक्लेशयुक्त परिणाम किये बिना, समभाव से, शान्ति से सह लेने से निर्जरा होगी, इसलिए इन्हें सहन करना परीषहजय है। ये परीषह वर्गीकरण की दृष्टि से मुख्यतया २२ हैं - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, अचेल, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन, ये २२ प्रकार के परीषह हैं । = परिहार- विशुद्धि चारित्र - सामूहिक रूप से अमुक अवधि तक तपश्चर्या एवं सेवा ( वैयावृत्य) द्वारा आत्म शुद्धि करने की चारित्र - साधना | परीत - संसार ( संसार - परीत) - जिसका संसार (जन्म-मरणादिरूप संसार) परिमित (सीमित) हो गया है, वह परीत (परित) संसार या परीत-संसारी है। जो जिनदेव के वचनों में अनुरक्त होकर भक्तिभावपूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करते हैं तथा मिथ्यात्व से विरहित होते हुए असंक्लिष्ट परिणाम वाले हैं, वे परीत-संसारी (परिमित संसार वाले) होते हैं। परीत-संसार का कालमान- परीत-संसारी जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः कुछ कम अर्द्ध-पुद्गल परावर्तनकाल तक संसार में रहता है, तत्पश्चात् अवश्य ही मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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