Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 634
________________ ४८० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * पाशस्थ - पाश कहते हैं - बन्धन को । जो साधक बन्धन के हेतुओं - मिथ्यात्वादिरूप पाशों में स्थित है। अर्थात् कर्मवन्ध की प्रवृत्तियों में रचा-पचा रहता है, वह पाशस्थ है। पिण्ड-प्रकृति- बहुत-सी कर्मप्रकृतियों के समूहरूप प्रकृतियाँ पिण्डप्रकृतियाँ कहलाती हैं। जैसे - त्रसदशक, स्थावरदशक, कषायचतुष्क आदि । पिण्डस्थध्यान- (1) अपने शरीर में पुरुषाकार, जो निर्मल गुण वाला जीव प्रदेशों का समुदाय स्थित है. उसका चिन्तन करना पिण्डस्थध्यान है | (II) पिण्ड का अर्थ है - देह | उसमें जो सच्चिदानन्दमय तेजस्वी आत्मा विराजमान है, उसका चिन्तन करना पिण्डस्थध्यान है | (III) अपने पिण्ड में रवि किरणों के समान तेजस्वी, कपायादि कल्मषों का हरण करने वाले जिनेन्द्र का ध्यान करना अथवा अपने भाल के नीचे हृदयप्रदेश में या कण्ठदेश में रविसम तेजस्वी जिनेन्द्र भगवान के रूप का ध्यान करना भी पिण्डस्थध्यान है । अथवा श्वेत चमकीले किरणों को फैलाते हुए अष्टमहाप्रातिहार्य परिकरित तीर्थंकर भगवान अपनी देह में या हृदय में स्थित हैं, ऐसा ध्यान करना भी पिण्डस्थध्यान हैं। पिपासा - परीषह-जय-मार्ग में स्थित तत्त्वज्ञ साधु प्यास से पीड़ित होने पर भी सचित पानी को ग्रहण न करके या ग्रहण करने की इच्छा भी न करके उस पीड़ा को समभाव से सहता है, या अचित्त जल मिलने की प्रतीक्षा करता है, वह तृपापरीपह - विजयी है। पीहित - सचित्त वनस्पति, जल, बीज, मिट्टी आदि से ढक कर दिया जाने वाला आहारादि लेना या देना पीहित नामक आहारदोष है । पीतलेश्या - कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य- विचारक, विद्यावान्, दया का सागर, लाभ-अलाभ सदा प्रसन्नचित्त जीव के पीतलेश्या (तेजोलेश्या) होती है । पुण्य - (I) जो आत्मा को पवित्र करता है, अथवा जिससे आत्मा पवित्र होती है, वह पुण्य है। (II) पुण्य शुभ कर्म को कहते हैं | (III) दानादि क्रियाओं से उपार्जनीय शुभ कर्म पुण्य हैं। (IV) शुभ प्रकृतिस्वरूप परिणत पुद्गल पिण्ड जीवों के लिए आल्हादकर पुण्य है। पुद्गल - स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध वाले रूपी हों, वे द्रव्य पुद्गल कहलाते हैं। शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप इत्यादि पुद्गल की पर्यायें हैं। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ये पुद्गल के गुण हैं, लक्षण हैं। स्कन्ध, कन्चदेश, स्कन्धप्रदेश और अणु, ये सभी पुद्गल के ही विभिन्न रूप हैं। पुद्गल-परावर्त-(I) तीनों लोकों में स्थित नमस्त पुगलों को औदारिकादि शरीरा से ग्रहण कर लेने का नाम पुद्गल - परावर्त है | (II) जब संसार के मध्यगत समस्त पुद्गल औदारिक, वैक्रिय, तैजस्, भाषा, आनापान, मन और कर्म, इन सात के रूप में आत्मसात् करके परिणमा लिये जाते हैं, तब पुद्गल - परावर्त पूर्ण होता है। पुद्गल-परिवर्त-संसार - जीव ने पुद्गल परिवर्तरूप संसार में सभी पुद्गलों को एक बार नहीं, अनन्त बार भोग कर छोड़ा है। यही पुद्गल - परिवर्त-संसार का स्वरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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