Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 637
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४८३ * विपाकरूप शुभाशुभ भावों से आत्मा को पृथक् करना (निश्चयतः) प्रतिक्रमण है, जो आत्म-स्वरूप में अवस्थानरूप ही है। प्रत्तिपत्ति-(I) कान लगाकर सावधानी से उपदेश को ग्रहण करना। (II) हितरूप शिक्षा देना और यथावसर अन्नपानादि प्रदान करना। (III) किसी पदार्थ की मीमांसा सुन कर यह ऐसा ही है (तहत्ति, तथेति) इस प्रकार से बोध-स्वीकार या निश्चयात्मक बोध का नाम प्रतिपत्ति है। (IV) जीवादि की मार्गणा का नाम भी प्रतिपत्ति है। प्रतिपाति-अधःपतन ही जिस ज्ञान या ध्यान का स्वभाव हो, वह प्रतिपाति ज्ञान या ध्यान कहलाता है। जैसे प्रतिपाति अवधिज्ञान। प्रतिपृच्छा-(I) कौन-सा महाकार्य करना है, उस विषय में गुरु से सविनय पूछ कर फिर साथी साधुओं से पूछना प्रतिपृच्छा है। (II) अथवा पहले निषेध किये हुए कार्य के विषय में प्रयोजनवश पुनः पूछना प्रतिपृच्छा है। पठित पाठ या सूत्र के विषय में शंका उपस्थित होने पर पृच्छा-प्रतिपृच्छा करना भी स्वाध्याय का एक अंग है। प्रतिबुद्ध-जो मिथ्यात्व और अज्ञानरूपी निद्रा के हट जाने से सम्यक्त्व के विकास को प्राप्त कर चुका है, अथवा संसार की अनित्यता से विरक्त हो चुका है, उसे प्रतिबुद्ध कहते हैं। प्रतिबुद्धजीवी-जिस धैर्यशाली जितेन्द्रिय महापुरुष को स्वहिताहित-विवेकिता एवं प्रवृत्ति करने में सदैव सतत योग-जागृति रहती है, वह प्रतिबुद्धजीवी अप्रमत्तयोगी कहलाता है। प्रतिमा-ग्रहण किये हुए त्याग, नियम, प्रत्याख्यान को जीवनपर्यन्त स्थिर रखने की प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहते हैं। जैसे-श्रावक की ११ प्रतिमाएँ, तथा भिक्षु की १२ प्रतिमाएँ हैं। प्रतिरूपक व्यवहार-(I) अच्छी या असली वस्तु ग्राहक को दिखा कर खराब, खोटी या नकली वस्तु दे देना, या धोखाधड़ी करना, या मिलावट करना, ये सब प्रतिरूपक व्यवहार नामक दोष (अतिचार) अचौर्याणुव्रत को मलिन करते हैं। . प्रतिलेखना-(I) आगमानुसार वस्त्रादि उपकरणों को जीवों की दया के लिए देखना। (II) इस प्रकार क्षेत्र की, काल की, भावों की तथा द्रव्य की प्रतिलेखना यानी संयमानुसार विवेकपूर्वक निरीक्षण-परीक्षण करना भी प्रतिलेखना है। प्रतिश्रोतःपदानुसारी बुद्धि-किसी ग्रन्थ के अन्तिम पद के अर्थ और परिच्छेद को दूसरे से सुन कर अन्तिम पद से ले कर आदि पद तक अर्थ और ग्रन्थ के विचार में जो साधु कुशल हैं, उनकी उस लब्धि या ऋद्धि का नाम प्रतिश्रोतःपदानुसारी बुद्धि है। प्रतिसेवना-प्रतिषेवणा-जो आचरण साधुपद के योग्य नहीं हैं, ऐसे अकल्पनीय (अकल्प्य), आचरण का नाम प्रतिसेवना या प्रतिषेवणा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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