Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 625
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४७१ * निसर्ग-(E) निसर्ग का अर्थ स्वभाव है। वह क्वचित् सम्यग्दर्शन का हेतु होता है। (II) निसर्ग-अधिकरण है-मन, वचन और काया से प्रवृत्ति करना। (III) निसर्ग का एक अर्थ-छूट जाना भी है। अपूर्वकरण परिणाम के अनन्तर जो तत्त्वश्रद्धा का कारणभूत अनिवृत्तिकरण होता है, उसे भी निसर्ग कहते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के उत्पन्न हो जाने पर वह छूट ही जाता है। निसर्गज सम्यग्दर्शन-बाह्यपुरुष के उपदेश के बिना जीवादि पदार्थों का अधिगम होना-सम्यग्दर्शन का उत्पन्न होना-निसगंज सम्यग्दर्शन है। ___ निह्नव-ज्ञान या ज्ञानी का, या जिससे ज्ञान प्राप्त हुआ है, उसका नाम छिपाना, अपलाप करना निह्नव है। यह ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म का एक कारण भी है। निःशंक-निःशंकित-(I) आप्त-प्रज्ञप्त आगमों तथा अतीन्द्रिय विषयों में किसी प्रकार की शंका न होना, जो जिन भगवन्तों ने कहा है, प्ररूपित किया, वही सत्य है। आप्त-पुरुष असत्यवादी नहीं होते। (II) जो सम्यग्दृष्टि जीव सात प्रकार के भयों से रहित हो चुके हैं, होते हैं, वे निःशंक या निःशंकित हैं। निःश्रेयस-जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, दुःख और भय से रहित तथा शुद्ध (निराबाध) सुख से युक्त निर्वाण (मोक्ष) को निःश्रेयस कहा जाता है। निष्क्रमण-(I) बाहर निकलना, निर्गमन। (I) दीक्षा ग्रहण करने के लिए घर से प्रस्थान करना। - निष्कामकर्म-शुभ कर्म भी कामना-नामनारहित हो कर करना, कर्मफल की इच्छारहित, समर्पणवृत्ति से कर्म करना। अहंकाररहित हो कर करना। निमित्त-नैमित्तिक-(I) किसी कार्य में प्रेरक या तटस्थ अथवा सहायक कारण को निमित्तकारण कहते हैं, उस निमित्त में जो व्यक्ति सहयोगी होता है, वह नैमित्तिक कहलाता है। (II) निमित्तशास्त्र का ज्ञाता भी नैमित्तिक कहलाता है। निर्विकल्पता-प्रकारता-विशेषणता-संकल्प-विकल्पता से रहित अवस्था निर्विकल्पता है। . नीरजस्क-अष्टविध कर्मरज से रहित सिद्ध-परमात्मा। नीललेश्या-जो कार्य करने में मन्द, विचारशून्य, विशिष्ट ज्ञान से रहित, विषयलोलुप, अहंकारी, मायाचारी, आलसी हो, जिसका अभिप्राय-ज्ञान दुःशक्य हो, जो परवंचनाकुशल तथा धनधान्य-तीव्राभिलाषी हो, उसे नीललेश्या वाला समझना चाहिए। . नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष-लिंग के बिना-इन्द्रिय आदि की सहायता न ले कर जीव को जो स्वतः अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, या केवलज्ञान होता है, उसे नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष कहते हैं। इन तीनों कोटि के ज्ञानों से अतीन्द्रिय ज्ञान या अमुक अवधि तक का ज्ञान होता, परन्तु केवलज्ञान से तीन काल, तीन लोक का ज्ञान होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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