Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 617
________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ४६३ * जिस अपराध के होने पर जो प्रायश्चित्त दिया गया है, तदनुसार विचार करके जो उक्त द्रव्यादि के आश्रित वैसे अपराध के होने पर वही प्रायश्चित्त दिया जाये या दिया जाना चाहिए, इसका नाम धारणा-व्यवहार है। धार्मिक और धर्मानुयायी में अन्तर - श्रुतचारित्रधर्म को जो जीवन में आचरित करता है, उपासनात्मक धर्म को शेष जीवन - व्यवहार में क्रियान्वित करता है, वह सच्चा धार्मिक है, उसमें साम्प्रदायिक कट्टरता नहीं होती । हठाग्रह पूर्वाग्रह नहीं होता, वह आत्मशुद्धिसाधनलक्षी धर्म को जीवन में आचरित करता है, परन्तु धर्मानुयायी केवल उस धर्म-सम्प्रदाय का सदस्य होता है, कदाचित् सामायिक, प्रतिक्रमण आदि उपासनात्मक धर्म क्रियाकाण्ड कर लेता है, उसके जीवन में अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, समता, अनेकान्त और दया आदि प्रायः नहीं होते। उसमें साम्प्रदायिक कट्टरता होती है, पंथवादी सम्यक्त्वधारी होता है वह । उसमें धर्मान्धता भी होती है । धूमदोष - आहार का परिभोग करते समय भिक्षा में प्राप्त आहार की निन्दा, दाता की निन्दा, आहार के प्रति घृणा, अरुचि दिखाते हुए आहार सेवन करना धूमदोष नामक परिभोगैषणा के ५ दोषों में से एक है। धृति - मोक्षप्रापक धर्म की भूमिका का एक कारण है- धृति = धैर्य | मन में एकाग्रता, चित्त में स्वस्थता, समाधि, मन का प्रणिधान, ये सब धृति के पर्यायवाचक हैं। धृतिमान् -संयम में रति या अनुराग करने वाला धृतिमान् कहलाता है। ध्याता- (I) मैं 'पर' (अन्य ) का नहीं हूँ और न ही मेरे 'पर' हैं। मैं तो मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ। इस प्रकार ध्यान में जो आत्म-चिन्तन करता है, वह यथार्थ ध्याता है। (II) कषायों की कलुषता, मन की आकुलता से रहित हो कर जो विषयों से विरक्त होता हुआ मन को रोक कर स्वभाव में स्थित होता है, वह ध्याता कहलाता है। ध्यानयोग-चित्तनिरोधलक्षण धर्मध्यानादि में मन-वचन-काया का योग (व्यापार) जोड़ना ध्यानयोग है। ध्यान - (I) स्थिर अध्यवसाय आत्म-परिणाम ध्यान है। (II) किसी पदार्थ में एकाग्र होकर यथावस्थित रूप से चिन्तनरूप निरोध करना ध्यान है | (III) अध्यात्मलक्षीदृष्टि से किसी एक विषय में मन को एकाग्र करके चिन्तन में एकतान हो जाना ध्यान है। ध्येय (ध्यान के विषय = ध्यातव्य ) - केवलज्ञानादि रूप अनेक उत्तम गुणों से सम्पन्न वीतराग जिन तथा उनके द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय ध्यान करने योग्य हैं। इनके अतिरिक्त द्वादश अनुप्रेक्षा, उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने की विधि, तेईस वर्गणाएँ, मार्गणाएँ, पंच-परिवर्तन और प्रकृति- स्थिति आदि बन्धभेद भी ध्येय = ध्यातव्य हैं। = ध्रुवस्थान - मोक्ष का एक नाम है - ध्रुवस्थान, क्योंकि वह सदैव शाश्वत स्थान है। ध्रुवबन्धिनी ( प्रकृतियाँ) - जिस कर्मप्रकृति का बन्ध जिस किसी भी जीव में अनादि व ध्रुवरूप से पाया जाता है, उसे ध्रुवबन्ध - प्रकृति कहते हैं। इसके विपरीत कई कर्मप्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी होती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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