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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ४६७ *
जाने से भी इसे निदान कहा गया है। भगवान् महावीर ने औपपातिकसूत्र में ९ प्रकार के निदान बताए हैं।
निद्रा-(I) मद, खेद, पीड़ा, थकान आदि को दूर करने के लिए जो शयन किया जाता है, उसे निद्रा कहते हैं। यह तथा निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला एवं स्त्यानर्द्धि, ये पाँचों दर्शनावरणीय कर्म के भेद हैं। दर्शनावरणीय कर्म के उदय से ये सब प्रकट होती हैं। इनके लक्षण पृथक्-पृथक् हैं। . निधत्त (बन्ध का एक प्रकार)-(I) जिस कर्म का प्रदेशपिण्ड न तो उदयावधि से पूर्व उदय में दिया (उदीरणाकरण किया जा सके और न अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त किया जा सके, उसे निधत्त या निधत्ति कहते हैं। (II) उद्वर्तना या अपर्वतना करणों को छोड़ कर शेष करणों के अयोग्यरूप से कर्म को व्यवस्थापित किया जाना निधत्तिकरण कहा जाता हैं।
निकाचित-कर्मों के जिस पिण्ड का न तो उत्कर्षण हो सकता है, न अपकर्षण और न ही अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण और उदीरणाकरण (उदयावली) में प्रविष्ट हो सकता है, वह निकाचितरूप से बद्ध कर्म है। इसे निकाचना, निकाचितकरण या निकाचिता भी कहते हैं।
निन्दा-परपरिवाद-खिंखिणी-(I) दूसरे के दोषों (चाहे सत्य हों या असत्य) को प्रकट करने की इच्छा होना पर-निन्दा है। इसे १८ पापस्थानों में परपरिवाद नाम से गिनाया है। सूत्रकृत्रांगसूत्र में इसे 'खिंखिणी' भी कहा गया है। किन्तु आत्म-निन्दा पश्चात्ताप का एक प्रकार है, जो प्रायश्चित्त तप का अंग है।
निमित्त-कुशील-व्यंजन, स्वर, अंग-स्फुरण, छिन्न, भौम, लक्षण और स्वप्न, इन आठ प्रकार के निमित्तों का प्रकाशन करके वसति एवं भिक्षादि प्राप्त करना आहार का निमित्तदोष है। इसी से मिलता-जुलता दोष निमित्तपिण्ड है। त्रिकाल-विषयक लाभ-अलाभ आदि कहना निमित्त है। तथैव अंगुष्ठप्रश्न आदि विद्या-विशेष रूप निमित्त को भिक्षा का साधन बनाना निमित्तपिण्ड है।
नियतिवाद-जो जिस समय में, जिससे, जैसे और जिसके नियम से होता है, वह उस समय, उसी के द्वारा, उसी प्रकार और उसके होगा ही, इस प्रकार के कथन को नयतिवाद कहते हैं।
नियम-(I) नियम से करने योग्य कार्य को नियम कहते हैं। (II) नियमित और परिमित काल के लिए किये गये त्याग-प्रत्याख्यान, सौगन्ध या प्रतिज्ञा को नियम कहते हैं, किन्तु वह सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की वृद्धि में सहायक होना चाहिए। (III) शास्त्रविहित का आचरण करना और शास्त्र में निषिद्ध का परिवर्जन करना भी नियम है।
नियाग-प्रतिदिन आमन्त्रित आहार को ही ग्रहण करना, अनामंत्रित आहार को ग्रहण न करना नियाग नामक आहारदोष है। संयमी साधु के लिए यह अनाचीर्ण है। ५२ जनाचीर्णों में से एक अनाचीर्ण है यह।
निरंतिचार-ग्रहण किये हुए व्रतों, महाव्रतों या त्याग-प्रत्याख्यान एवं नियम का जातेचाररहित (निर्दोष) पालन करना।
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