Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 600
________________ * ४४६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * चतुरस-नाम-(I) पैर के अंगूठे से ले कर सिर के बालों तक जितना ऊँचाई का प्रमाण हो, उतना ही प्रमाण दोनों भुजाओं के फैलाने पर तिरछा भी हो, यह चतुरन कहलाता है। (II) अथवा जिस कर्म का उदय होने पर इस प्रकार के आकार वाला जीव का शरीर होता है उसे चतुरन-नामकर्म कहते हैं। चतुरिन्द्रिय जाति-नाम-(I) स्पर्शनादि चार इन्द्रियों से युक्त जीव चतुरिन्द्रिय कहलाता है। (II) स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षुरिन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण और नोइन्द्रियावरण कर्म का उदय होने पर स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण को जानने वाले जीवों को चतुरिन्द्रिय जाति-नामकर्म कहलाते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों से युक्त होते हैं, वे द्रव्यमान से रहित होते हैं। टिड्डी, पतंगे, मक्खी, मच्छर, भौंरा, बिच्छू आदि इस कोटि के जीव हैं। चतुरिन्द्रियलब्धि-जिह्वा, स्पर्श, घ्राण और चक्षुरिन्द्रियावरणों के क्षयोपशम से जो शक्ति उत्पन्न होती है, वह। ___ चतुर्दशपूर्वित्व-समग्र श्रुत = चौदह पूर्वो के पारगामी हो कर जो श्रुतकेवली नाम से प्रसिद्ध हैं, उनकी बुद्धि-ऋद्धि (या लब्धि) को चतुर्दशपूर्वित्व कहते हैं। चतुर्विंशतिस्तव-ऋषभदेव से ले कर महावीर तक चौवीस तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करते हुए मन-वचन-काय की शुद्धिपूर्वक पूजा व प्रणाम करने को चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। चरणकुशील-जो श्रमण कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीविका, कल्ककुरुका, लक्षण और विद्यामंत्रादि का आश्रय लेता है, वह। चरणपुलाक-मूलगुण व उत्तरगुणों की प्रतिसेवना के साथ चारित्र की विराधना करने वाला श्रमण। चरणानुयोग-गृहस्थ और अनगारों के चारित्रं की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं। चरभशरीर-चरमशरीरी-संसार के अन्त में वर्तमान तथा घातिकर्म-अघातिकर्म का क्षय करके तत्काल, तद्भव मोक्षगामी, वज्रऋषभनाराचयुक्त शरीर वाले रत्नत्रय के आराधक चरमशरीर या चरमशरीरी कहलाते हैं। चर्या-परीषहजय-जो साधु श्रमण्चर्या के अनुसार अप्रतिबद्ध हो कर मार्ग के परीषहों, नंगे पैर से चलने आदि से होने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करता है वह चर्या-परीषह पर विजय प्राप्त कर लेता है। चारण (लब्धि-सम्पन्न) साधु-(I) जिस चारणलब्धि के प्रभाव से साधु अतिशययुक्त गमन में समर्थ हो। (II) जल, जंघा, तन्तु, पुष्प, पत्र, श्रेणि (आकाश-प्रदेश की पंक्ति) और अग्निशिखा आदि का अवलम्बन ले कर गमन में समर्थ साधु। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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