Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 609
________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ४५५ * तिर्यग् = तिर्यंच- जो कुटिलता - मन-वचन-काया की वक्रता या विरूपता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ प्रगट हैं, जो अत्यन्त अज्ञानी हैं तथा जिन्हें पाप, पुण्य, धर्म का विवेक नहीं है, वे तिर्यंच या तिर्यग कहलाते हैं। तिर्यग्गति-(I) तिर्यग्गति-नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली तिर्यञ्च - अवस्थाओं के समूह को तिर्यग्गति कहते हैं। (II) अथवा तिर्यंच जीवों की गति को तिर्यंचगति कहते हैं । तिर्यग्योनि - तिर्यग्गति-नामकर्म के उदय से प्राप्त जन्म को तिर्यंचयोनि कहते हैं । तिर्यग्गति-न - नाम - जिस नामकर्म के उदय से जीवों को तिर्यञ्चपना प्राप्त होता है, उसे तिर्यग्गति - नाम कहते हैं । तिर्यग्लोक-एक लाख योजन के सातवें भाग मात्र सूचि - अंगुल के बाहुल्यरूप जगत्प्रतर को तिर्यग्लोक कहते हैं, इसे तिरछालोक भी कहते हैं। इसमें मनुष्य, एकेन्द्रिय तिर्यञ्च से लेकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक तथा व्यन्तरजाति के देव एवं मध्यलोक के अन्त में ज्योतिष्क देव भी निवास करते हैं।. तीर्थ - (I) साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चातुर्वण्य संघ को तीर्थ कहते हैं। (II) संसार-समुद्र से दुःखी प्राणियों को पार उतारने वाला श्रेष्ठ मार्ग | (III) प्रवचनरूप चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ अथवा प्रथम गणधर को भी तीर्थ कहते हैं । तीर्थंकर-जो अनुपम-पराक्रमधारक क्रोधादि कषायों के उच्छेदक, अपरिमित ज्ञान = केवलज्ञान से सम्पन्न, संसार-समुद्र के पारंगत, उत्तमगति (सिद्धगति) को प्राप्त करने वाले और सिद्धिपथ के उपदेशक, जीवन - मुक्त हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं । तीर्थंकर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। वे अठारह दोषरहित, बारह गुणसहित तथा चौंतीस अतिशय से सम्पन्न होते हैं । ३५ प्रकार के वाणी के अतिशय से भी युक्त होते हैं । तीर्थंकर - नामगोत्र बाँधने के २० मुख्य कारण हैं। तितिक्षा - समभावपूर्वक कष्ट सहना । तीर्थंकर-नाम = तीर्थंकरत्व - (I) जो कर्म अरहन्त अवस्था की प्राप्ति का कारण है, वह तीर्थंकर नामकर्म कहलाता है। (II) जिस कर्म के उदय से ज्ञान - दर्शन - चारित्र- तपरूप मोक्षमार्गप्रापक तीर्थ का प्रवर्तन किया जाता है, आक्षेप, संक्षेप, संवेग, निर्वेद के द्वार से भव्यजनों को सर्वकर्ममुक्ति के लिए साधुधर्म एवं गृहस्थधर्म का उपदेश दिया जाता है तथा सुरासुरेन्द्र-नरेन्द्रादि द्वारा पूजित होता है, उसे तीर्थंकर नाम कहते हैं । तीर्थंकर - सिद्ध-तीर्थंकर होकर सिद्ध होने वाले जीव । तीर्थ-सिद्ध-चतुर्विध श्रमण संघरूपी तीर्थ के उत्पन्न (प्रवर्तन) होने पर जो सिद्ध होता है, वह नरपुंगव । तीव्रभाव - अन्तरंग और बहिरंग कारणों की उदीरणावश उत्पन्न होने वाले उत्कट परिणाम। तीव्र - मन्दभाव - परिणामों की प्रकर्षता के साथ अपकर्षता का आना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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