Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 607
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४५३ * (ट) टंकोत्कीर्ण-वस्तुतः क्षायिक (केवल) ज्ञान, अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारटंकोत्कीर्ण न्याय से स्थित होने से, जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है। (त) __ तत्त्व-(1) जिस वस्तु का जो भाव है, वह तत्त्व है। (II) अपना तत्त्व स्व-तत्त्व है, स्वभाव यानी असाधारण धर्म। अर्थात् वस्तु के असाधारणरूप स्व-तत्त्व को तत्त्व कहते हैं। (III) तत्त्व, परमार्थ, ध्येय, द्रव्य-स्वभाव, शुद्ध, परम ये सब एकार्थक हैं। (IV) तत्त्व का लक्षण सत् है। ये तत्त्व ७ या ९ हैं-जीव, अजीव से ले कर मोक्ष तक। (V) जो भाव जिस रूप में अवस्थित है, वह तत्त्व है। तत्त्वार्थ-तत्त्वभूत जो अर्थ-पदार्थ है, वह तत्त्वार्थ है। जीव, पुद्गलकाय धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये तत्त्वार्थ हैं, जो गुण-पर्यायों से युक्त हैं। तत्त्वज्ञ-वस्तु-तत्त्व का ज्ञाता। . तथाकार-दशविध समाचारी का एक प्रकार। आपका कथन यथार्थ (तहत्ति) है, इस प्रकार विनयपूर्वक बड़ों के कथन का स्वीकार करना। तदाहृतादान-चोर के द्वारा चुराई हुई वस्तु का ग्रहण करना या खरीदना। यह अचौर्याणुव्रत का एक अतिचार है। तदुभयार्ह-जिस दोष का सेवन कर के साधक गुरु के समक्ष आलोचना करता है, गुरु-सन्देश पा कर प्रतिक्रमण करता है, तथा बाद में मेरा दुष्कृत मिथ्या हों, इस प्रकार कहता है, उसे तदुभयार्ह नामक प्रायश्चित्त कहते हैं। - तज्जीव-तच्छरीरवाद-जो जीव (आत्मा) है, वह शरीर है। शरीर से अलग कोई आत्मा (जीव) नहीं है, ऐसा वाद (मत)। तद्भव-मरण-(I) जो जिस भवग्रहण में मरता है, वह तद्भवमरण है। (II) भवान्तरप्राप्ति के पश्चात् पूर्वभव का विनाश हो जाता है, उसे भी तद्भवमरण कहते हैं। (III) जो जीव मरकर पुनः उसी भव में उत्पन्न होते हैं, उनका वह मरण भी तद्भवमरण कहलाता है। तप-(1) विषय-कषायादि का विनिग्रह करके ध्यान एवं स्वाध्याय में निरत होते हुए आत्म-चिन्तन करना तप है। (II) जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि को संतृप्त करता है, वह तप है। जो शरीर, मन और इन्द्रियों को संतृप्त करके-परभावों से हटा कर अन्तर्मुखी हो कर कर्मों को नष्ट करता है, वह तप है। तप के मुख्य दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर। इन दोनों के प्रत्येक के छह-छह भेद हैं। तप-आचार-अनशनादि छह बाह्य और प्रायश्चित्त आदि छह आभ्यन्तर, इस प्रकार बारह ही प्रकार के तप में उत्साहपूर्वक अथवा अनाजीवक (निःस्पृह) हो कर प्रवृत्त होना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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