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४५६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
तृणसंस्तर - गाँठ से रहित, निश्छिद्र एवं अखण्डित तृणों से निर्मित बिस्तर ( शय्या), जो साधुजीवन में उत्तम माना है।
तृण-स्पर्श-परीषह-जय-सूखे तृण, कठोर कंकड़, काँटे, तीखी मिट्टी, ऊबड़खाबड़ जगह, कील आदि के चुभने से शरीर के किसी अंग में वेदना होने पर भी उस ओर ध्यान न देकर प्राणिरक्षा का ध्यान रखते हुए चर्या (निषद्या, गमन, शय्या आदि) करना वह तृण-स्पर्शबाधा-परीषह-विजयी होता है।
तृषा- परीषह-ज ह-जय - (I) संतापजनक ग्रीष्म ऋतु में प्रचण्ड सूर्य का ताप, रूखे भोजन से उत्पन्न ताप, अचित्त-प्रासुक पानी न मिलने से कण्ठ सूखना, तीव्र प्यास लगना आदि के. रूप में होने वाले तृषा-परीषह को समभाव से सहना | (II) निःस्पृहता, शान्ति एवं धैर्यरूपी अमृत से तृषा शान्त करना।
तेजस्काय - तेजस्कायिक- (I) तैजस् नाम अग्नि का है, उष्ण का है, वही जिनका शरीर है, वे तेजस्काय या तेजस्कायिक जीव कहलाते हैं। (II) अथवा अग्निकायिक जीवों द्वारा छोड़े गए भस्म आदिरूप काय को भी तेजस्काय कहते हैं ।
तेजोलेश्या - (I) दृढ़ मित्रता, दयार्द्रता, सत्यभाषित्व, दानशीलता, आत्मिक कार्य में कुशलता, विवेकिता, सर्वधर्म-समदर्शिता आदि तेजोलेश्या के लक्षण हैं। (II) इसे पीतलेश्या भी कहते हैं। छह लेश्याओं में से यह चौथी शुभ लेश्या है।
तैजस्शरीर - (I) समस्त प्राणियों के आहार का पाचक, जो उष्णता, ऊर्जा, प्राण-शक्ति आदि तैजस का केन्द्र है, वह । (II) अथवा विशिष्ट तप से उत्पन्न लब्धि - विशेष से निकलने वाली तेजोलेश्या का स्रोत तैजस्शरीर है | (III) जिस कर्म के उदय से तेजस्वर्गणा के स्कन्ध के निःसरण - अनिःसरण तथा प्रशस्त - अप्रशस्त तैजस्शरीररूप में परिणत होते हैं, उसको तैजस्शरीर - नामकर्म कहते हैं। इसी से सम्बद्ध तैजस्शरीरबन्धन, तैजस्शरीरसंघातनाम हैं।
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तैजस्-समुद्घात - जीवों के अनुग्रह - निग्रह करने में समर्थ तैजस्शरीर के कारणभूत समुद्घात को तैजस्-समुद्घात कहते हैं। ये दो प्रकार का होता है-शुभ तैजस्-समुद्घात तथा अशुभ तैजस्-समुद्घात ।
तिर्यञ्चायु - जिस कर्म के उदय से शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि के अनेक उपद्रवों के सहन करने वाले तिर्यंचों में रहना पड़ता है, उसे तैर्यग्योन या तिर्यञ्चायु कहते हैं।
त्याग - (1) समस्त पदार्थों के प्रति मोह छोड़ कर संसार, शरीर और भोगों के प्रति विरक्ति का चिन्तन करना । (II) आहार, शरीर और उपधि के प्रति होने वाले भावदोषों का परित्याग करना त्यागधर्म है।
त्रस-स-नामकर्म के उदय से जो जीव स्वतः हलन चलन करते हैं, त्रास पाते हैं, वे इस प्रकार हैं - अण्डज, पोतज, रसज, संस्वेदज, जरायुज आदि । द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव सजीवों में परिगणित होते हैं ।
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