Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 606
________________ * ४५२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * (ज्ञज्ञ) ज्ञान-(I) जिससे जाना जाए, ऐसा विशेषबोध ज्ञान है, सामान्यबोध दर्शन है। (II) हेयोपादेय तथा हिताहित-प्राप्ति-परिहार-विषयक बोध। (III) ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से होने वाला तत्त्वावबोध ज्ञान है। (IV) स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है, उसके दो भेद हैं-प्रत्यक्षज्ञान और परोक्षज्ञान। ज्ञान दो प्रकार का है-सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान। सम्यग्दर्शनयुक्त ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, मिथ्यादृष्टियुक्त ज्ञान मिथ्याज्ञान है। सम्यग्ज्ञान के मति-श्रुतादि ५ भेद हैं। इनके अनेक भेद-प्रभेद है। वस्तु को यथावस्थित रूप से जानना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञानाचार-(I) काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय, इन ज्ञानांगों सहित ज्ञान का विधिपूर्वक सविनय अभ्यास करना ज्ञानाचार है। (II) वस्तु के यथार्थस्वरूप को ग्रहण करने वाले ज्ञान में जो परिणति होती है, वह ज्ञानाचार है। (III) पंचविध ज्ञान के निमित्त शास्त्राध्ययनादि क्रिया करना ज्ञानाचार है। (IV) ज्ञायकभाव में या ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहना और परभावों में राग-द्वेषादि विभावों में न जाना भी ज्ञानाचार है। ज्ञानातिचार-ग्रन्थ या शास्त्र के अक्षर, पद आदि में कमी करना, बढ़ाना, विपरीत रचना करना, पूर्वापर-विरोधी व्याख्या करना, विपरीत अर्थ निरूपण करना, विनयरहित हो कर अध्ययन करना, योग, घोष आदि का ध्यान रखे बिना उच्चारण करना, जिज्ञासु को अध्ययन न करा कर अजिज्ञासु या अपात्र को ज्ञान देना। इत्यादि ज्ञान के १४ अतिचार हैं। ज्ञानानुभूति-शुद्धनयस्वरूप जो आत्मा का अनुभवन है, वही ज्ञानानुभूति है। ज्ञानावरण-ज्ञानावरणीय-ज्ञान के आवरक कर्म को ज्ञानावरण या ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। ज्ञानकुशील-जो काल, विनय आदि अष्टविध ज्ञानाचार की विराधना करता है, वह ज्ञानकुशील है। ज्ञानचेतना-प्राणों का अतिक्रमण करके एकमात्र ज्ञान का ही जो अनुभव किया जाए, उसे ज्ञानचेतना कहते हैं। ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का क्षय हो जाने पर कृतकृत्य हो कर चेतक स्वभाव से अपने (आत्मा) से अभिन्न स्वाभाविक ज्ञान-केवलज्ञान-का अनुभव करना, यह विशुद्ध ज्ञानचेतना का लक्षण है। ज्ञान-विराधना-ज्ञान का अपलाप करना, गुरु आदि ज्ञान-दाता के नाम को छिपाना इत्यादि निह्नवादिरूप ज्ञान-प्रतिकूल आचरण करना ज्ञान-विराधना है। ज्योतिष्क-लोक को प्रकाशित करने वाले विमानोत्पन्न सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि देवों को ज्योतिषी या ज्योतिष्क देव कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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