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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ४३९ *
क्षायोपशमिकभाव-पूर्वोक्त क्षयोपशम के लिए जो भाव होते हैं, वे क्षायोपशमिकभाव कहलाते हैं।
क्षयोपशमसम्यक्त्व-जो मिथ्यात्व उदय को प्राप्त हुआ है, वह क्षीण और जो उदय को अप्राप्त है, वह उपशान्त है। इस प्रकार क्षय के साथ उपशमरूप मिश्र अवस्था को प्राप्त होना क्षयोपशम है, इस प्रकार के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले तत्त्वार्थश्रद्धान को क्षयोपशम या क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं। उन-उन कर्मों के क्षयोपशम से निष्पन्न ज्ञान, संयम तथा लब्धि को भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए।
क्षान्ति-(I) क्रोधादि कषायों की शुभ परिणामभावनापूर्वक निवृत्ति-अभाव का नाम शान्ति (क्षमा) है। (II) आक्रोशादि सुन कर भी क्रोध-त्याग करना। क्षान्ति–सहिष्णुता, धैर्य, तितिक्षा और क्षमा, इन अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।
क्षायिक-उन-उन कर्मों के अत्यन्त क्षय (नाश = निवृत्ति) से निष्पन्न भाव को क्षायिकभाव कहते हैं। क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक चारित्र, क्षायिक अभयदान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य-ये सब उन-उन कर्मों के आत्यन्तिक क्षय हो जाने से निष्पन्न होते हैं। ___ क्षायिकभाव-ज्ञानादि के विघातक पुद्गलों-ज्ञानावरण आदि कर्मस्कन्धों के आत्यन्तिक नाश से जो अध्यवसाय आत्म-परिणाम होता है, वह क्षायिकभाव कहलाता है। ___ क्षायिकसम्यक्त्व-अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषाय तथा दर्शनमोहनीय की तीन, यों ७ प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय से प्रादुर्भूत होने वाला सम्यक्त्व।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टि-दर्शनमोहनीय का आत्यन्तिक क्षय का नाम क्षय है, उसमें उत्पन्न जीव-परिणाम है-क्षयलब्धि या क्षायिकलब्धि। उस लब्धि में क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है।
क्षिप्रावग्रह-मतिज्ञान का एक भेद। पदार्थ को शीघ्रता से ग्रहण करना क्षिप्रप्रत्यय या क्षिप्रावग्रह है।
क्षीणकषाय-जिसका समस्त मोह (कषाय-नोकषाय) सर्वथा क्षीण हो चुका है, अतएव जो स्फटिक-मणिमय पात्र में स्थित जल के समान निर्मल मन की परिणति से युक्त हो गया है, उसे क्षीणकषाय कहते हैं। इसे क्षीणमोह भी कहते हैं। यह बारहवें गुणस्थान का भी नाम है।
क्षुधा (वेदना तथा परीषह)-असातावेदनीय कर्म के तीव्र या मन्द उदय से जो तीव्र या मन्द संक्लेश को उत्पन्न करती है उसे क्षुधावेदना कहते हैं। जो सम्यग्दृष्टि साधक उदर और आँतों को संतप्त करने वाली क्षुधावेदना को भलीभाँति सहता हुआ आगमोक्त विधि से प्राप्त आहार के द्वारा उसे शान्त करता है, किन्तु अनेषणीय आहार ग्रहण नहीं करता, वह क्षुधा परीषह-विजयी है।
क्षेत्रज्ञ-जो आत्म-स्वरूप को अथवा षड्द्रव्यात्मक लोक-क्षेत्र को जानता है, वह।
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