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* ४३४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
काय-स्वभाव-अनित्यता, निःसारता, अपवित्रता तथा जन्म-मरणादि दुःखहेतुता काय (शरीर) का स्वभाव है।
कायिक शुभाशुभ योग-काया से निरवद्य प्रवृत्ति या शुभ भावों से पुण्यादि प्रवृत्ति करना कायिक शुभयोग है तथा हिंसादि अशुभ या सावध प्रवृत्ति करना कायिक अशुभयोग है। ___ कायिकी क्रिया-काया से दुष्टतापूर्वक या दुष्ट अध्यवसायपूर्वक उद्यम (चेष्टा) करना कायिकी क्रिया है।
कायोत्सर्ग-विभिन्न अनुष्ठानों तथा आवश्यक क्रियाओं में जिन- गुणस्मरणपूर्वक काया और काया से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव वस्तुओं पर ममत्व का त्याग; ममत्वंविसर्जन कायोत्सर्ग है। यह खड़े हो कर, बैठ कर सिद्धासन, पद्मासन या सुखासन से भी किया जाता है। निर्विण्ण साधु द्वारा खड़े हो कर या बैठ कर कषायरहित हो कर देह का परित्याग करना भी कायोत्सर्ग है। इसे काय-व्युत्सर्ग भी कहते हैं। आभ्यन्तर तप का यह अन्तिम भेद है।
कारक-सम्यक्त्व-जिस सम्यक्त्व के होने पर जीव आगमोक्त व्रततपादि-अनुष्ठान तदनुसार ही करता-कराता है, उसे कारक-सम्यक्त्व कहते हैं।
कारण-जिसके होने पर ही जो होता है, वह कार्य और इतर-जिसके सद्भाव में कार्य होता है, वह कारण कहलाता है। कारण के मुख्यतया दो प्रकार हैं-उपादान और निमित्तकारण। वैसे प्रत्यय, कारण, निमित्त, ये एकार्थवाची हैं। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से भी हेतु (साधन या कारण) दो प्रकार का है। ये दोनों फिर आत्मभूत, अनात्मभूत के रूप में दो-दो प्रकार के हैं। उपादानकारण ही कार्यरूप होता है, निमित्तकारण कार्य से अभिन्न नहीं होता। उपादानकारण के बिना निमित्त कुछ भी नहीं कर सकता। सहकारी कारण तो निमित्त का ही एक प्रकार है। ___ कारण-परमात्मा-जो निरावरण (स्वाभाविक) ज्ञान-दर्शन से युक्त हो, उसे कारण-परमात्मा कहते हैं।
कारुण्य (करुणाभावना)-शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक दुःखों से पीड़ित प्राणियों के प्रति अनुग्रहरूप परिणाम होना कारुण्य है, निःस्वार्थ निष्काम करुणा लाना करुणाभावना है।
कार्मणशरीर-(I) जो समस्त शरीरों का बीजभूत शरीर है, उनका कारण है, वह कार्मणशरीर है। (II) कर्म के विकारभूत या कर्मरूप शरीर का नाम कार्मणशरीर है।।
कार्मण काययोग-मन, वचन और काय वर्गणाओं के निमित्तभूत परिस्पन्दन, कम्पन या व्यापार (प्रवृत्ति) का नाम योग है। कार्मणशरीर द्वारा जो योग किया जाता है, वह कार्मण काययोग है। अथवा कार्मणशरीर के साथ वर्तमान जो संयोग है, अर्थात् आत्मा का कर्मों को आकर्षण करने की शक्ति से संगत प्रदेश- परिस्पन्दनरूप योग है, वह कार्मण काययोग है।
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