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* ४३२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
कल्प्य (कल्प) व्यवहार-साधुवर्ग के लिए किस काल में कौन-सी वस्तु ग्राह्य है, कौन-सी अग्राह्य है? इसका विवेक करके भी अपवादिक परिस्थिति में अग्राह्य के सेवन तथा ग्राह्य के असेवन से अत्यन्त दोष के प्रायश्चित्त की जिसमें प्ररूपणा की जाती है, वह कल्प्य-व्यवहार है। इसका अपर नाम कल्प्याकल्प्य भी है।
कषाय-(I) कष का अर्थ है-कर्म या संसार, जो कर्म या संसार को प्राप्त कराया करते हैं, वे कषाय हैं। वे चार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ। तीव्रता-मन्दता की दृष्टि से १६ प्रकार हैं-४ अनन्तानुबन्धी, ४ अप्रत्याख्यानी, ४ प्रत्याख्यानी और ४ संज्वलन। (II) चारित्रमोहनीय के भेदभूत कषायवेदनीय के उदय से आत्मा में जो क्रोधादि रूप कलुषता उत्पन्न होती है, जो आत्म-गुणों का न्यूनाधिक रूप से विघात (ह्रास) करती है, उसे भी कषाय कहा जाता है। इसे कषायवेदनीयकर्म भी कहते हैं। ___ कषायकुशील (निर्ग्रन्थ)-एक प्रकार के निर्ग्रन्थ, जिन्होंने अनन्तानुवन्धी आदि तीन प्रकार के कषायों के उदय पर विजय पा लिया है, केवल संज्वलन कषाय के वशीभूत होते हैं, उन्हें कषायकुशील कहते हैं।
कषाय-समुद्घात-तीव्र कषायोदयवश कषाय की तीव्रता से मूल शरीर को न छोड़ कर पर का घात करने हेतु आत्म-प्रदेशों के शरीर से बहिर्भूत हो कर तीन गुणे फैल जाना कषाय-समुद्घात है। यही प्रबलता से घात है।
कषायात्मा-जिसमें चारों कषायों का उदय पाया जाए, वह।
कषाय-विवेक-द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का है। द्रव्यतः वचन और काया से क्रोधादि सूचक विविध प्रवृत्ति न करना द्रव्यतः कषाय-विवेक है तथा मन में भी दूसरों के परिभव आदि का विचार न आने देना भावतः कषाय-विवेक है।
कषाय-संलेखना-(1) परिणामों = अध्यवसायों की विशुद्धि करना। (II) तथा शुभ ध्यानों के द्वारा कषायविषयक संलेखना = अल्पीकरण = कृशीकरण करना। (III) अथवा क्रोधादि कषायों का सर्वथा संन्यास = परिहार करना कषाय-संलेखना है।
कांक्षा-(I) कांक्षा का अर्थ है-गृद्धि, आसक्ति, लोलुपता या तीव्र इच्छा। (II) इस लोक-परलोक सम्बन्धी विषयों की प्राप्ति की इच्छा करना कांक्षा है। (III) व्रत, तपश्चरण आदि से उपार्जित पुण्य के बदले में लौकिक-पारलौकिक वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा करना कांक्षा है। (IV) अथवा आडम्बर आदि देख कर पर-दर्शन या पर-मत को ग्रहण करने की इच्छा करना भी कांक्षा है। (V) कांक्षा सम्यग्दर्शन का एक अतिचार (दोष) है।
कापोतलेश्या-दूसरों पर क्रोध करना, निन्दा करना, उन्हें दुःख देना, वैर-विरोध करना, शोक और भय से ग्रस्त रहना, दूसरों के ऐश्वर्य आदि को सहन न करना, दूसरे का तिरस्कार करना, स्व-प्रशंसा-पर-निन्दा करना, दूसरों का कतई विश्वास न करना, अपने समान दूसरों को भी बेईमान समझना, स्व-हानि-वृद्धि को न समझना, रण में मरण चाहना, कार्य-अकार्य न गिनना इत्यादि प्रकार की मनोवृत्ति या भावों की कलुषता कापोतलेश्या है।
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