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* ४३० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
कर्मकरण-कर्म-विषयक बन्धन। कर्मकिल्विष-कर्मचाण्डाल । खराब कर्म करने वाला। कर्मस्कन्ध-कर्मपुद्गलों का पिण्ड। कर्मस्थिति-कर्मपुद्गलों के अवस्थान की कालावधि। कर्मनिषेक-कर्मपुद्गलों की रचना-विशेष। कर्म-परिशाटना-कर्मपुद्गलों का जीव प्रदेशों से पृथक्करण। निर्जरा का लक्षण-विशेष।
कर्मशरीर = कार्मणशरीर-कर्मपुद्गलों का बना हुआ अत्यन्त सूक्ष्म शरीर-विशेष इसे कार्मणशरीर या कर्मजशरीर भी कहते हैं। यह एक प्रकार का कम्प्यूटर है, जो प्रत्येक संसारी प्राणी के कर्म के आनव, बन्ध और क्षय का हिसाब रखता है।यह भविष्य में मरणोपरान्त भी आत्मा के साथ भवान्तर या जन्म-जन्मान्तर में साथ रहता और जाता है।
कर्मजा-बुद्धि-अभ्यास से उत्पन्न होने वाली अनुभवयुक्त बुद्धि। इसे कार्मिकी, कर्मिका या कार्मिका बुद्धि या प्रज्ञा भी कहते हैं।
कर्मविपाक-कर्मपरिणाम, उदयागत कर्म का फल। कर्मविपाक का प्रतिपादक ग्रन्थ (कर्मग्रन्थ)।
कर्मलेश्या-कर्म द्वारा होने वाला जीव का परिणाम। ' कर्मभूमि-भरतक्षेत्र आदि कर्म-प्रधान भूमि। कर्मभूमिज-कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाला।
कर्मदलिक-कर्मबन्ध की क्वांटिटी (परिमाण) बताने वाला समूह, जो स्थिति या रस की अपेक्षा के बिना कर्म होने वाला कर्मवर्गणा का जत्था, जो प्रदेशबन्ध है, वह कर्मदलिकरूप है।
कर्मोदय-कर्मबन्ध होने के पश्चात् सत्ता में पड़े हुए कर्मों का फलोन्मुख होने के लिए उद्यत होना कर्मोदय है।
कर्मसंग-राग-द्वेष या आसक्तिरूप भावकर्मरूप परिणाम।
कर्मफल-कर्म के उदय में आने पर उसका शुभ या अशुभ फल अथवा उदीरणा द्वार। उदय में ला कर प्राप्त किया जाने वाला शुभाशुभ फल।
कर्मफलभोग-पूर्ववद्ध कर्म का शुभ या अशुभ फल भोगना या सुख या दुःखरूप में कर्मफल वेदन।
कर्मोपार्जन-कर्मों के मिथ्यात्व आदि पाँच कारणों में से किसी या किन्हीं कारणों से कर्मबन्ध करना। अथवा त्रिविध योग द्वारा कर्मों को आकृष्ट करके कषायाविष्ट हो कर आत्मा का कर्म से श्लिष्ट होना।
निकाचित कर्म-अनिकाचित कर्म-कर्मों का इतना प्रगाढ़ बन्ध, जिनकी कालमर्यादा (स्थिति) और तीव्रता (तीव्ररसमात्रा) में कोई परिवर्तन या समय से पूर्व उसका फलभोग
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