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* पारिभाषिक शब्द कोष * ४११ *
अभिग्रहिक-एकान्ततः पूर्वाग्रह, हठाग्रह हो, तथा आत्मा, परमात्मा आदि तत्त्वों के स्वरूप के विपर्यास हो, वहाँ आभिग्रहिक मिथ्यात्व होता है। इसके विपरीत अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व में सतत मूढ़दशा ही बनी रहती है, किसी प्रकार की विचारदशा नहीं रहती ।
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व - ऐसा मताग्रह या हठवाद, जिसमें सच्चा मार्ग जान-समझ लेने पर भी व्यक्ति अपनी मिथ्या मान्यताओं या गलत परम्परा को पकड़े रहते हैं, छोड़ते नहीं । आभिनिबोधिक - अभिमुख और नियत पदार्थ को इन्द्रिय और मन से जानना । इसे मतिज्ञान भी कहते हैं।
आभियोगिक-अभियोग का अर्थ है- पराधीनता। जिनका प्रयोजन ही पराधीनता है, यानी दूसरों के अधीन रहकर उनकी आज्ञानुसार सेवा कार्य करते हैं, वे आभियोगिक देव होते हैं।
आभियोगिक भावना - कौतुक, भूतिकर्म व शरीरगत चिह्नों के शुभाशुभ फलादि बता कर आजीविका करना आभियोगिक भावना है।
आभ्यन्तर तप-तप के दो भेद - बाह्य और आभ्यन्तर । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, ये छह आभ्यन्तर या आन्तर तप हैं, क्योंकि ये सर्वकर्ममुक्ति के अन्तरंग कारण हैं, इन्हें स्थूलदृष्टि वाले, तथा लौकिक जन देख नहीं पाते, मिथ्यात्ववश इनकी सम्यक् आराधना नहीं कर पाते।
आनुपूर्वी - नाम - जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में रहा हुआ जीव आकाशप्रदेशों की श्रेणी : (पंक्ति) के अनुसार गमन करके उत्पत्ति - स्थान ( गन्तव्य नरकादि गति) में पहुँच जाता है, उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं।
आप्त- -अभिधेय वस्तु को जो यथावस्थित जानता है, यथाज्ञात प्रतिपादन करता है।
आमर्शोषधि-प्राप्त- आमर्श का अर्थ है- स्पर्श । जिन महर्षियों के हाथ-पैर आदि का स्पर्श औषधि को प्राप्त हो गया है, और जिनके स्पर्शमात्र से दुःसाध्य रोग मिट जाते हैं, ऐसी लब्धि के धारक ।
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आयु - आयुकर्म - नारकादिभव को प्राप्त कराने वाला कर्म आयु है। इस कर्म के उदय से जीव मनुष्य, देव आदि के रूप में जीवित रहता है और इसके क्षय होते ही वह दूसरी पर्याय में चला जाता है, अर्थात् मर जाता है । वह चार प्रकार का है - नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु।
आरम्भ-उपक्रम, शुरूआत। प्राणियों को पीड़ा देने हेतु किया गया व्यापार ।
आरम्भजा हिंसा - कृषि, आहार बनाने, या आजीविका कोई प्रवृत्ति करने में जो प्राणियों की विराधना होती है, वह आरम्भजा हिंसा है।
आरम्भ-समारम्भ- (I) आरम्भ का यहाँ अर्थ है - जीव, उनका समारम्भ = उत्पीड़न । . (II) कृषि, रसोई आदि प्रवृत्ति से होने वाला प्राणिविघात, आरम्भ-समारम्भ है।
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