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* ४१४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट -
__आहारकत्व मार्गणा-शरीर-नामकर्म के उदय से शरीर, वचन और द्रव्यमनोरूप बनने योग्य नोकर्मवर्गणा का जो ग्रहण होता है, उसे आहार कहते हैं, अथवा ओज आहार, लोम आहार, कवलाहार आदि में से किसी न किसी आहार को ग्रहण करना आहारकत्व है। उसकी मार्गणा (अन्वेषण) करना आहारकत्व मार्गणा है।
आहारसंज्ञा-आहार की ओर देखने से, उसकी ओर उपयोग जाने से तथा पेट के खाली होने पर जो आहार की अभिलाषा होती है, उसे आहारसंज्ञा कहते हैं।
(इ) इंगिणीमरण-समाधिमरण का एक भेद, जिसमें दूसरे की सेवा-शुश्रूषा न लेते हुए, स्वयं ही शरीर की सेवा करते हुए, जो समाधिपूर्वक मरण होता है, उसे इंगिणीमरण
कहते हैं।
इच्छाकार-दशविध समाचारी का एक प्रकार जिसमें साधक को बलपूर्वक न कहकर 'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य करिए' ऐसा कहा जाता है। अभीष्ट सम्यग्दर्शनादि, व्रतनियमादि या तप-संयमादि सहर्ष, चढ़ते परिणामों से स्वेच्छा से सहर्ष स्वीकार करना, उसका पालन करना, इच्छानुसार उस सत्कार्य में प्रवृत्त होना इच्छाकार है, इच्छायोग है।
इत्वरिक अनशन-यावज्जीवन तक अनशन स्वीकार न करके परिमित काल तक आहार का त्याग करना इत्वरिक अनशन है। यह नवकारसी से लेकर छह महीने या इससे भी अधिक तक अभीष्ट है।
इन्द्र-अन्य देवों में न पाई जाने वाली असाधारण अणिमा-महिमादि ऋद्धियों के धारक विशिष्ट देवों के अधिपति को इन्द्र कहते हैं। ये चौंसुट होते हैं, ये सभी सम्यग्दृष्टि एवं तीर्थंकर-भक्त होते हैं।
इन्द्रिय-परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले आत्मा को इन्द्र और उसके चिह्न या लिंग को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में निमित्त होती है, वह इन्द्रिय है। इन्द्रिय के मुख्यतया दो प्रकार हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय दो प्रकार की हैं-निवृत्ति और उपकरण। शरीर में दिखाई देने वाली इन्द्रियों सम्बन्धी पुद्गलों की विशिष्ट रचना निर्वृत्ति है और उपकरण वह है जो निर्वृत्तिरूप रचना को हानि नहीं पहुँचने देता, उसका रक्षक और बाह्य ज्ञान में सहायक होता है। भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की हैं- लब्धि और उपयोग। लब्धि का अर्थ है--शक्ति-प्राप्ति क्षमता। स्पर्शक आदि इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव की जो शक्ति अनावृत होती है, वह लब्धि है तथा उपयोग है- उक्त लब्धि का उपयोग–अमुक-अमुक इन्द्रियों के द्वारा विषयों में प्रवृत्त होकर प्राणी द्वारा करना। यह प्रवृत्ति भी दो प्रकार की है-जानना और सुख-दुःख आदि का वेदन करना। लब्धि और उपयोग की अपेक्षा से इन्द्रिय के पाँच भेद हैं- श्रोत्रेन्द्रिय आदि। वैदिकदर्शन में इन्द्रियों के दो भेद किये गए हैं-ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय। विकलेन्द्रिय
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