Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 579
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४२५ * कथा-मोक्ष-पुरुषार्थ में उपयोगी धर्म, अर्थ और काम का कथन करना कथा है। कथा के मुख्यतया तीन भेद हैं। सत्कथा, धर्मकथा और विकथा। सामान्य कथा जिसका पुण्यशुभ कर्मफल से सम्बन्ध हो, वह सत्कथा है, जिसमें धर्म का विशेष निरूपण हो। जिससे जीवों को आराधक बनने से स्वर्गादि अभ्युदय अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो, वह धर्म है, अथवा जिससे संवर और निर्जरा हो, वह धर्म है, उससे सम्बन्धित कथा धर्मकथा है। धर्मकथा के चार प्रकार हैं-आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगिनी, निर्वेदिनी। जिससे हिंसादि अठारह पापस्थानों की वृद्धि हो, उसकी उत्तेजना मिले, ऐसी कथा विकथा है। विकथा मुख्यतया चार हैं-स्त्रीकथा (कामवासनोत्तेजककथा), भक्तकथा (भोजनादि की कथा = कथन), राजकथा-(राजाओं या शासनकर्ताओं के भोगविलास की कथा या युद्धकथा), और देशकथा (देश-विदेश के रीति-रिवाजों आदि की कथा)। इसके अतिरिक्त भाण्ड, नर, चोर, वैर, द्वेष, पर-पाषण्ड, पैशुन्य, पर-निन्दा, जुगुप्सा, परिग्रह, पर-पीड़ा, कलह, उपन्यास आदि की हिंसोत्तेजक, कामोत्तेजक, विकारवर्द्धक, कषायवर्द्धक, चौर्यादि-प्रेरक कथाएँ भी विकथाएँ हैं। कटुक-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल कड़वे रसरूप में परिणत हो, वह। कदलीघात (मरण)-कदली (केले के स्तम्भ) के समान जो विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्राघात, संक्लेश, आहार और श्वास के निरोध आदि के द्वारा सहसा आयु का घात (मरण) होता है, उसे कदलीघातमरण कहते हैं। _ कनकावली तप–इस तप में पहले उपवास, बेला, फिर ९ तेले, तत्पश्चात् १ उपवास से लेकर १६ उपवास तक क्रमशः करना, तदनन्तर ३४ तेले, फिर १६ उपवास से ले कर १ उपवास तक उतरना; फिर ९ तेले, फिर बेला और उपवास, इस प्रकार विगयसहित पारणायुक्त प्रथम परिपाटी में तपस्या के १ वर्ष, २ मास और १४ दिन एवं पारणा के ८८ दिन होते हैं। दूसरी, तीसरी और चौथी परिपाटी में तपस्या का क्रम तो पहली परिपाटी के समान ही होता है, किन्तु पारणा द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ परिपाटी में क्रमशः विगई-वर्जित, लेपमात्र- वर्जित और आयम्बिलयुक्त होता है। यों इस तप की चारों परिपाटियों में ५ वर्ष, ९ महीने और १८ दिन लगते हैं। करण-आत्मा का उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम यहाँ 'करण' नाम से विवक्षित हैं। ये मोहकर्म की ग्रन्थि को तोड़ने के पराक्रम में सहायक बनते हैं। पूर्वोक्त आत्म-परिणामों की विशुद्धिरूप करणों के उत्तरोत्तर तीव्र तीन क्रम हैं-यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण; ये सम्यक्त्वादि के अनुगुण विशुद्धिरूप परिणाम हैं। पूर्व के दोनों करणों के प्राप्त होने पर भी जीव को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो जाता। तीसरे अनिवृत्तिकरणरूप आत्मा के तीव्र परिणामों से मिथ्यात्व की ग्रन्थि टूट कर सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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