Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 580
________________ * ४२६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट - करण-आत्मा के शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम जो कर्म के फल को तथारूप बदलने–परिणमन करने में समर्थ हैं, वे भी करण हैं, उक्त करण के १0 या ११ प्रकार हैं-(१) वन्ध या वन्धन, (२) सत्ता या सत्त्व, (३) उद्वर्तन या उत्कर्ष, (४) अपवर्तन या अपकर्ष, (५) संक्रमण, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८) उपशमना या उपशमन, (९) निधत्ति या निधत्तकरण, (१०) निकाचित या निकाचनाकरण। और (कहीं-कहीं) (११) अबाधाकाल या अबाध। इन सबके पीछे 'करण' शब्द संलग्न है। __ करण-चक्षु आदि इन्द्रियों तथा मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि के माध्यम से आत्मा के कार्यों की अभिव्यक्ति की जाती है, इसलिए इन्हें भी कार्यसाधकतम करण कहा जाता है। इनके दो प्रकार हैं-अन्तःकरण और बाह्यकरण। बाह्यकरण इन्द्रियाँ हैं और अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि हैं। ___करण (त्रिक)-हिंसादि की प्रवृत्ति करने अथवा उनका त्याग-प्रत्याख्यान करने में तीन सहायक करण हैं-कृत, कारित और अनुमोदित। अर्थात् करना, कराना और अनुमोदन करना = करते हुए को अच्छा जानना-मानना। करणसत्य-जैसा कहा है, तदनुसार करना, अथवा त्रिकरण से सत्य होना, स्वीकृत महाव्रतों के प्रति पूर्ण वफादार होना। साधुवर्ग के २७ गुणों में से करणसच्चे (करणसत्य) नामक एक गुण भी है। आगमानुसार समस्त धर्मक्रियाएँ उपयोगपूर्वक करना भी करणसत्य है। अथवा करना, कराना और अनुमोदनरूप त्रिकरण कहलाते हैं; त्रिकरण से भी हिंसादि-निवारण करणसत्य है। ___करणानुयोग-लोक और अलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और चारों गतियों के स्वरूप को स्पष्ट बताने वाला ज्ञान करणानुयोग कहलाता है। करुणाभावना-(I) दीन, आर्त, दुःखित, पीड़ित, शोषित, पददलित, भयभीत और त्रस्त तथा प्राणों की याचना करने वाले प्राणियों के प्रति अनुकम्पा-बुद्धि, उपकार-बुद्धि, दुःख मिटाने की इच्छा, सहानुभूतिभावना करुणाभावना है। (II) कारुण्यपात्रों के प्रति वार-बार अनुप्रेक्षण करना, निःस्वार्थभाव से उनको दुःख मिटाने का अनुपम निरवद्य, सात्त्विक, अहिंसक उपाय बताने की भावना करना भी करुणाभावना है। कर्कशनाम-जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर में पाषाणवत् कर्कशता = कठोरता उत्पन्न होती है, वह। कर्म-काजल से ठसाठस भरे हुए डिब्बे के समान सूक्ष्म और स्थूल अनन्त पुद्गलों से परिपूर्ण लोक में जो कर्मरूप में परिणत होने योग्य पुद्गल हैं, उनका जीव के राग-द्वेषादि परिणामों के अनुसार आकर्षित हो कर बन्ध को प्राप्त होना कर्म कहलाता है। मिथ्यात्वादि पंचविध कारणों से जीव के द्वारा त्रिविध योग से जो किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं। कर्म-प्रकार-वह कर्म दो प्रकार का है-द्रव्यकर्म और भावकर्म। मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से आकर्पित कार्माण जाति के पुद्गल-परमाणुओं के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म तथा तज्जनित जीव के राग-द्वेषादि परिणामों को भावकर्म कहते हैं। भावकर्म क्रिया है, द्रव्यकर्म उसका फल है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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