Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 567
________________ * पारिभाषिक शब्द - कोष * ४१३ * आम्नवभावना-आम्नवानुप्रेक्षा - समस्त संसारी जीवों के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और शुभाशुभ योग; इन पाँच आनवद्वारों एवं आर्त्त- रौद्रादि ध्यानों से निरन्तर कर्मों का आगमन होता रहता है, मुझे इन ( दोनों ही लोकों में दुःखदायक आम्रवजन्य दोषों से बच कर रहना या उनका निरोध करना चाहिए, तभी मेरी आत्मा कर्मावरणों से रहित हो सकेगी, इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना आनवभावना (अनुप्रेक्षा) है। आसुरिकीभावना - जन्म-जन्मान्तर तक क्रोध रखना, आसक्तियुक्त होकर तप करना, ज्योतिष आदि निमित्त बताकर जीविका करना, दयारहित होकर क्रियाएँ करना, तथा प्राणि-पीड़न करके भी पश्चात्ताप न करना, ये सब आसुरिकीभावना के लक्षण हैं। आसेवना-कुशील-निर्ग्रन्थ का एक प्रकार, जो संयम की विपरीत आराधना करता है, या असंयम सेवना करता है, वह आसेवना-कुशील कहलाता है। आनव-मिथ्यात्वादि पंचविध कारणों से कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) का आगमन द्वार आनव है। मन-वचन-काया के क्रियारूप योग को आस्रव कहते हैं। इसके दो प्रकारद्रव्याम्नव और भावास्नव। जीव का मिथ्यात्वादि परिणाम भावानव है, और उनके कारण शुभाशुभ कर्मपुद्गलों का आगमन द्रव्यानव है। आस्तिक्य - सम्यक्त्व के पाँच लक्षणों में से एक लक्षण । जीव आदि तत्त्व (पदार्थ) यथायोग्यरूप से अपने-अपने स्वभाव से युक्त हैं, इस प्रकार की बुद्धि, सम्यग्दृष्टि को आस्तिक्य कहते हैं। इसे ही आस्था (देव - गुरु- धर्म और तत्त्व पर श्रद्धा ) कहते हैं। आस्तिकदर्शन- जो दर्शन आत्मा परमात्मा में मानते हैं, इसके अतिरिक्त पूर्वजन्म- पुनर्जन्म, तथा स्वर्ग-नरकादि लोक, कर्म-कर्मफल आदि में मानते हैं, वे आस्तिकदर्शन हैं। आहरण = आहार - औदारिकादि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना आहार है। अथवा औदारिक शरीर के योग्य अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप चतुर्विध आहार है। इसके अतिरिक्त ओज आहार, लोम (रोम) आहार भी है। आंहारकशरीर-सूक्ष्म पदार्थों के विषय में शंका-समाधान या जिज्ञासा-शान्ति के लिए अथवा असंयम के परिहार की इच्छा से प्रमत्त संयत द्वारा जो शरीररचना की जाती है, वह। जिस कर्म के उदय से आहारवर्गणा के स्कन्ध आहारकशरीर के रूप में परिणत होते हैं, उसे आहारकशरीर-नामकर्म कहते हैं । आहारक- समुद्घात - अल्प पाप और सूक्ष्म तत्त्वों के अवधारणरूप प्रयोजन को सिद्ध करने वाले आहारकशरीर की रचना के लिए जो समुद्घात (आत्म- प्रदेश बहिर्गमन) होता है, वह आहारक-समुद्घात है। आहार-पर्याप्ति-आहारवर्गणा के परमाणुओं को खल और रसभागरूप से परिणमन कराने की शक्ति को आहार - पर्याप्ति कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704