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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ४१५ *
पाँचों इन्द्रियों से कम हों, वे विकलेन्द्रिय हैं। उनके तीन प्रकार हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय। जिन जीवों के स्पर्शन और रसन हो, वे द्वीन्द्रिय; जिनके स्पर्शन, रसन और घ्राण, ये तीन इन्द्रिय हों, वे त्रीन्द्रिय जीव; और स्पर्शन, रसन और घ्राण तथा चक्षु, ये चार इन्द्रियाँ हों, वे चतुरिन्द्रिय होते हैं। एकेन्द्रिय-जिनके केवल एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय हों, वे एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रिय में पंचस्थावर जीव हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। पंचेन्द्रिय-जिनके पाँचों इन्द्रियाँ हों, वे पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनके चार प्रकार हैं-नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव।
इन्द्रियजय-चक्षु-श्रोत्र आदि इन्द्रिय-विषयों को ज्ञान, वैराग्य और तपरूप अंकुश के प्रहारों द्वारा वश में करना।
इन्द्रिय-पर्याप्ति-योग्य देश में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों के ग्रहण करने रूप शक्ति की प्राप्ति। अथवा उक्त शक्ति की उत्पत्ति के निमित्तभूत पुद्गल-प्रचय की प्राप्ति। ___ इन्द्रिय-विषय-इन्द्रियों के पाँच विषय हैं-स्पर्श न, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द। ये विषय अपने आप में अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय नहीं हैं। इनके प्रति होने वाले राग-द्वेष ही कर्मबन्ध के कारण हैं, त्याज्य हैं। ___ इन्द्रिय-संयम-पाँचों इन्द्रियों के विषयों में स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने को इन्द्रिय-असंयम कहते हैं, उन विषयों पर नियंत्रण करने को इन्द्रिय-संयम कहा है। इसी को इन्द्रिय-निग्रह भी कहा जा सकता है।
इन्द्रिय-संवर-इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों के प्रति होने वाले राग-द्वेष आदि से आने वाले कर्मों के आम्नव.(आगमन) का निरोध करना इन्द्रिय-संवर है। ___ इष्ट-वियोग-पुत्र, पत्नी और धनादि सजीव-निर्जीव इष्ट पदार्थों का वियोग होने पर उनके संयोग के लिए जो बार-बार चिन्ता होती है, वह इष्ट-वियोगज आर्तध्यान कहलाता है। इसी के प्रतिपक्ष में इष्ट-संयोग, अनिष्ट-वियोग में हर्षानुभूति या रागभाव लाना भी कर्मबन्ध का कारण है। - इहलोकाशंसा-प्रयोग-इस लोक के विषय में अभिलाषा का प्रयोग। संलेखना का एक
अतिचार।
ईहा (मतिज्ञान भेद)-अवग्रह से जाने गए पदार्थ के विशेष जानने की इच्छा ईहा है। ऊहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा इसके नामान्तर हैं।
ईषत्प्राग्भार-सिद्धशिला का दूसरा नाम। समस्त कल्पविमानों के ऊपर ४५ लाख योजन विस्तार व आयाम वाली, खुले हुए छत्रसमान ईषत्प्राग्भार नामक पृथ्वी है। _ ईर्यापथ कर्म-कषायरहित कर्म ईर्यापथिक कर्म है। १३३ गुणस्थान में ईर्यापथिक क्रिया होती है। मात्र योग द्वारा कर्म आता है, उसे ईर्यापथ कर्म कहते हैं।
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