Book Title: Karm Vignan Part 09
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 556
________________ * ४०२ - कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट , अमृतनावी (लब्धि)-जिनके हाथ का स्पर्श पाते ही नीरस आहार भी अमृत-सदृश सरस बन जाता है तथा जिनके मधुर वचन प्राणियों के लिए अमृत-सम हितकारी, अनुग्रहकारक होते हैं, ऐसी लब्धि वाले श्रमण। इसे अमृतानवी ऋद्धि भी कहते हैं। ___ अमायी (सम्यग्दृष्टि)-जिनके मन-वचन-काया के योग तथा सभी व्यवहार सरन, सुसंगत हों। जिसकी काया, भाषा तथा भावों में सरलता हो, अवक्रतापूर्ण त्रिविधयोग हो, वह अमायी सम्यग्दृष्टि होता है। इसके विपरीत मायी मिथ्यादृष्टि होता है। अयोगकेवली, अयोग-जो शुक्लध्यानरूप अग्नि से घातिकर्मों को नष्ट करके त्रिविधयोगों से रहित हो जाता है, वह अयोग या अयोग (अयोगी) केवली होता है। . अयोगीकेवली गुणस्थान-चौदहवाँ गुणस्थान, जिसमें जीव समस्त योगों से तथा अन्तिम समय में समस्त कर्मों से रहित हो जाता है। ___अयोगसंवर-दो प्रकार-पूर्ण अयोगसंवर और आंशिक अयोगसंवर। पूर्ण अयोगसंवर १४वें गुणस्थान में होता है, जहाँ योगों का पूर्णतः निरोध हो जाता है, जबकि आंशिक अयोगसंवर तब होता है, जब साधक शुभ और अशुभ से निवृत्त हो कर शुद्धोपयोग में स्थिर रहे। अयशःनामकर्म-जिस कर्म के उदय से लोग निन्दा, बदनामी, या अपकीर्ति करते हैं। अरति-जिस नोकषाय कर्म के उदय से तप-संयम आदि के प्रति अरुचि या उपेक्षा होना अति है तथा बाह्य पदार्थों या विषयों के प्रति आसक्ति होना रति है। इन्हीं दोनों अर्थों के परिप्रेक्ष्य में १८ पापस्थानों (पाप के कारणों) में से १६वें पापस्थान-रति-अरति के अर्थ समझने चाहिए। अरति-परीषहजय-मनोज्ञ विषयों के प्रति रुचि के बदले अरुचि, नृत्य-गीत- वाद्यादि से विहीन जनशून्य निर्जन गृह में अरुचि के बदले एकान्त में स्वाध्याय, ध्यानादि साधना में रुचि, कामकथादि श्रवण आदि में अनुरक्ति के बदले विरक्ति, यही है-महाव्रती का अरति-परीषहजय। __ अरूप (रूपातीत) ध्यान-रूपरहित निर्मल सिद्धस्वरूप की प्राप्ति के लिए रूपादि से रहित, पापपंक से विमुक्त सिद्धस्वरूप का संवेदनात्मक ध्यान करना रूपातीत = अरूप धर्मध्यान है। अरूपी-जो द्रव्य शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित हैं, वे अरूपी कहलाते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव (आत्मा) ये ५ द्रव्य अरूपी हैं। पुद्गलास्तिकाय रूपी है। अरिहन्त-चार घातिकर्मों से रहित तथा चार भवोपनाही अघातिकर्मों से युक्त, केवलज्ञानी केवलदर्शी वीतराग अरिहन्त, अरहन्त या अर्हन्त कहलाते हैं। तीर्थंकर अरिहंत और सामान्यकेवली अरिहन्त में अन्तर है। तीर्थंकर १८ दोषरहित तथा १२ आत्मिक गुणों से युक्त होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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