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कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
(आ)
आकाश-आकाशास्तिकाय-सभी जीवों और पुद्गलों को तथा धर्मास्तिकायादि शेष द्रव्यों को जो अवकाश = स्थान देता है, वह आकाशद्रव्य या आकाशास्तिकाय है।
आकाशप्रदेश-आकाश के दो प्रकार-लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश के असंख्यात और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं। प्रदेश और परमाणु में अन्तर है। प्रदेश स्कन्ध से जुड़ा रहता है, अलग नहीं होता, जबकि पुद्गल-परमाणु परस्पर मिलकर एकरूप भी होते हैं और फिर अलग-अलग भी हो जाते हैं। __ आकिंचन्य-दशविध श्रमणधर्म का एक प्रकार। जो श्रमण वाह्य-आभ्यन्तर समस्त परिग्रह से रहित होकर राग-द्वेष का निग्रह करता है तथा सर्व संक्लेशरहित होकर निराकुलभाव में रहता है, वह अकिंचन है, उसका धर्म है-आकिंचन्य।
आक्रोश-परीषह-विजय-क्रोधवृद्धिकारक, अपमानकारक कर्कश एवं निन्द्य वचनों को सुनकर तथा प्रतीकार करने का सामर्थ्य होने पर भी उस ओर ध्यान न देना, पापकर्म का फल जानकर समभाव से सहना।
आकांक्षा-कांक्षा-इस लोक या परलोक के सुखों की इच्छा, भोगाभिलाषा, जीवित रहने और मरने की आकांक्षा, फलाकांक्षा, आशंसा आदि एकार्थक हैं।
आकुट्टी-प्राणियों की छेदन-भेदनादिरूप प्रवृत्ति तीव्र द्वेषपूर्वक करना आकुट्ट है, ऐसी प्रवृत्ति करने की बुद्धि आकुट्टी की बुद्धि, तथा ऐसी दुष्प्रवृत्ति का कर्ता भी आकुट्टी कहलाता है।
आगति-एक गति से कर्मानुसार दूसरी गति में जाना गति है और वहाँ से आना आगति है।
आगम-(I) पूर्वापर विरोधादिरहित शुद्ध आप्त वचन आगम है। (II) वीतराग सिद्धान्त-सम्मत अंगबाह्य-अंगप्रविष्ट शास्त्रसूत्र सिद्धान्त आदि।
आगम-व्यवहार-पंचविध व्यवहारों में से एक, जिसका अर्थ है सिद्धान्तानुसार व्यवहार।
आगार-(I) गृह, घर, आगारी = गृहस्थ, आगारस्थ। (II) आगार = छूट, अपवाद।
आचार-(I) आयारो = आचारांगसूत्र। निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार-विचार का तथा आध्यात्मिक साधना का जिसमें वर्णन है, वह सूत्र। (II) पंचविध आचार = आचरण, यथा-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। (III) आचार = धर्माचरण, व्रताचरण, अनुष्ठान आदि। ___ आचार्य (धर्माचार्य)-पंचविध आचार का, या व्रतों का स्वयं आचरण करते हैं, दूसरों को आचरण कराते हैं, उपदेश देते हैं, जो सर्वशास्त्रविद् धीर, इन्द्रियविजयी एवं छत्तीस गुणों से युक्त हों।
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