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________________ * ४०८ कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * (आ) आकाश-आकाशास्तिकाय-सभी जीवों और पुद्गलों को तथा धर्मास्तिकायादि शेष द्रव्यों को जो अवकाश = स्थान देता है, वह आकाशद्रव्य या आकाशास्तिकाय है। आकाशप्रदेश-आकाश के दो प्रकार-लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश के असंख्यात और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश हैं। प्रदेश और परमाणु में अन्तर है। प्रदेश स्कन्ध से जुड़ा रहता है, अलग नहीं होता, जबकि पुद्गल-परमाणु परस्पर मिलकर एकरूप भी होते हैं और फिर अलग-अलग भी हो जाते हैं। __ आकिंचन्य-दशविध श्रमणधर्म का एक प्रकार। जो श्रमण वाह्य-आभ्यन्तर समस्त परिग्रह से रहित होकर राग-द्वेष का निग्रह करता है तथा सर्व संक्लेशरहित होकर निराकुलभाव में रहता है, वह अकिंचन है, उसका धर्म है-आकिंचन्य। आक्रोश-परीषह-विजय-क्रोधवृद्धिकारक, अपमानकारक कर्कश एवं निन्द्य वचनों को सुनकर तथा प्रतीकार करने का सामर्थ्य होने पर भी उस ओर ध्यान न देना, पापकर्म का फल जानकर समभाव से सहना। आकांक्षा-कांक्षा-इस लोक या परलोक के सुखों की इच्छा, भोगाभिलाषा, जीवित रहने और मरने की आकांक्षा, फलाकांक्षा, आशंसा आदि एकार्थक हैं। आकुट्टी-प्राणियों की छेदन-भेदनादिरूप प्रवृत्ति तीव्र द्वेषपूर्वक करना आकुट्ट है, ऐसी प्रवृत्ति करने की बुद्धि आकुट्टी की बुद्धि, तथा ऐसी दुष्प्रवृत्ति का कर्ता भी आकुट्टी कहलाता है। आगति-एक गति से कर्मानुसार दूसरी गति में जाना गति है और वहाँ से आना आगति है। आगम-(I) पूर्वापर विरोधादिरहित शुद्ध आप्त वचन आगम है। (II) वीतराग सिद्धान्त-सम्मत अंगबाह्य-अंगप्रविष्ट शास्त्रसूत्र सिद्धान्त आदि। आगम-व्यवहार-पंचविध व्यवहारों में से एक, जिसका अर्थ है सिद्धान्तानुसार व्यवहार। आगार-(I) गृह, घर, आगारी = गृहस्थ, आगारस्थ। (II) आगार = छूट, अपवाद। आचार-(I) आयारो = आचारांगसूत्र। निर्ग्रन्थ श्रमणों के आचार-विचार का तथा आध्यात्मिक साधना का जिसमें वर्णन है, वह सूत्र। (II) पंचविध आचार = आचरण, यथा-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। (III) आचार = धर्माचरण, व्रताचरण, अनुष्ठान आदि। ___ आचार्य (धर्माचार्य)-पंचविध आचार का, या व्रतों का स्वयं आचरण करते हैं, दूसरों को आचरण कराते हैं, उपदेश देते हैं, जो सर्वशास्त्रविद् धीर, इन्द्रियविजयी एवं छत्तीस गुणों से युक्त हों। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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