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* पारिभाषिक शब्द-कोष * ४०७ . अश्रुतनिश्रित (मतिज्ञान)-शास्त्राभ्यास के बिना ही स्वाभाविक विशिष्ट क्षयोपशम के द्वारा औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी, इन चार से बुद्धिस्वरूप विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक मतिज्ञान कहलाता है।
असंख्यातनदेशी-वद्ध जीव शरीरप्रमाण असंख्यातप्रदेशी हो जाता है। लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी होता है। जिसका विभाग न हो सके, ऐसा सूक्ष्म अवयव प्रदेश कहलाता है।
असंयम-षट्कायिक जीवों का घात करना तथा इन्द्रिय और मन को नियंत्रित न रखना।
असंविग्न-पार्श्वस्थ (पाशस्थ) और शिथिलाचारी श्रमण। असात-रोग आदि के होने से होने वाली शारीरिक, मानसिक पीड़ा।
असातावेदनीय-असाता का अर्थ दुःख है। उस दुःख का वेदन = अनुभव जिस कर्म के उदय से परिताप के साथ किया जाता है, उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं।
अस्तिकाय-जिनका गुणों और अनेकविध पर्यायों के साथ अस्ति-स्वभाव = अभेद = तद्रूपत्व है, अथवा जिन द्रव्यों के प्रदेश या परमाणु रत्नराशि के समान पृथक्-पृथक् न होकर अभिन्न हों, वे अस्तिकाय कहलाते हैं। जैसे-धर्मास्तिकाय आदि पाँचों द्रव्य अस्तिकाय हैं।
अस्तेय महाव्रत-क्षेत्र, मार्ग, कल (कीचड़) आदि में स्थित, नष्ट, विस्मृत, पराधिकृत = परस्वामित्वकृत, दूसरे की वस्तु को मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से : ग्रहण न करना।
अस्थिर-नामकर्म-स्थिर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाक, भौं, जीभ आदि शरीर के अवयव अस्थिर यानी चपल होते हैं, वह। इसके विपरीत है-स्थिर- नामकर्म।
अस्मिता-'मैं' सत्व और पौरुष दोनों से सम्पन्न हूँ. इस प्रकार का अभिमान = अहंकार. 'अस्मिता' है।
असवेद्य (असातावेदनीय या अशुभ वेदनीय)-जिस कर्म के उदय से नरकादि गतियों में शारीरिक, मानसिक आदि नाना प्रकार के दुःखों का वेदन हो, भोगा जाये। ___ असंतृत-!) पापकर्मों से अनिवृत, (II) आम्रवों का निरोध न किया हुआ, (II) सत्रह प्रकार के संयम तथा संवर का जिसमें अभाव हो।
. अहंकार-जो कर्मजनितभाव या पर-पदार्थ वस्तुतः आत्मा से (अपने से) भिन्न हैं, उनमें अपनेपन का दुराग्रह होना अहंकार है, इसे अहंत्व भी कहते हैं। - अहिंसा महाव्रत-प्रमत्त योग से त्रस और स्थावर जीवों का तीन करण, तीन योग से प्राणातिपात न करना।
अहिंसा अणुव्रत-मन-वचन-काया से, दो करण, तीन योग से त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का परित्याग करना।
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