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________________ * ४०६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट अविज्ञप्ति-बौद्धधर्म-दर्शन - विहित कर्म का पर्यायवाची शब्द, जिसमें चैतसिक तत्त्वों ( भावकर्म) और भौतिक तत्त्वों ( द्रव्यकर्म) में कारण-कार्य-भाव सम्बन्ध को अविज्ञप्ति कहा गया है। अविनाभाव - व्याप्ति, अथवा व्यापक के बिना जिसकी स्थिति न हो। एक के बिना दूसरा न रह सके, वह (तादाम्य) सम्बन्ध अविनाभाव कहलाता है। अविनाशी - अविनश्वर, जो विनाशशील नहीं है। जैसे - आत्मा, परमात्मा । अथवा कूटस्थ परमेश्वर । अविसंवाद - दूसरे किसी प्रमाण से बाधा न पहुँचना और पूर्वापर विरोध की सम्भावना न रहना आगम-विषयक अविसंवाद है। अशरीरी - शरीरादि से रहित सिद्ध- परमात्मा । अशरणानुप्रेक्षा (अशरणभावना ) - जन्म-मरणादि भय से व्याप्त इस संसार में कर्मबन्धनादि से रहित अपनी आत्मा के सिवाय रक्षा करने वाला कोई नहीं है, इस प्रकार बार-बार विभिन्न पहलुओं से चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है। अशुचित्व- अनुप्रेक्षा (अशुचित्वभावना ) - वीर्य और रुधिर से वृद्धिंगत यह शरीर पुरीषालय के समान मल-मूत्रादि भरा अपवित्र है । चर्म से "मढ़े हुए इस शरीर की अपवित्रता स्नान व सुगन्धित उबटन आदि से भी दूर नहीं हो सकती । आत्मा की आत्यन्तिक शुद्धि तो सम्यग्दर्शनादि ही प्रकट कर सकते हैं। इस प्रकार निरन्तर विचार करना । अशुद्धोपयोग-शुद्धोपयोग-परद्रव्य के संयोग के कारणभूत जीव का उपयोग. अशुद्धोपयोग है, इसके विपरीत स्वात्म- द्रव्य या आत्म-गुणों में आत्मलक्षी उपयोग शुद्धोपयोग है। अशुभ नामकर्म-जिस नामकर्मोदय से नाभि से नीचे के अवयव अशुभ अशुभ काय-वचन-मनोयोग - हिंसादि काय से सम्बन्धित अशुभ क्रियाएँ, असत्य, कठोर, असभ्य भाषा का प्रयोग तथा मन से दूसरे के वध बंधनादि का विचार करना क्रमशः अशुभ काययोग, अशुभ वचनयोग और अशुभ मनोयोग है। असंख्येय - जो राशि संख्या से रहित, गणनातीत हो, वह असंख्येय या असंख्यात है। असंज्ञी - जो जीव द्रव्य-मन से रहित होने से शिक्षा, उपदेश और आलाप आदि को ग्रहण न कर सकें। असंप्राप्त उदय-जो कर्मदलिक अभी तक उदय को प्राप्त नहीं हुआ है, उसका वीर्य विशेष रूप उदीरणा के प्रयोग से अपकर्षण करके उदय - प्राप्त दलिक के साथ वेदन करना असंप्राप्त उदय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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