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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४०९ * आक्षेपणी -कथा-भव्य प्राणियों को मोह से हटा कर तत्त्वज्ञान के प्रति आकर्षित करने-मोड़ने वाली कथा। अथवा अनेकविध एकान्तदृष्टियों-मान्यताओं और अन्यमतीय विपरीत सिद्धान्तों के निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्यों तथा नौ तत्त्वों आदि के स्वरूप का उपदेश करने वाली कथा। आजीविका भय-आजीविका के नष्ट होने का भय। आज्ञा-आज्ञा से अभिप्राय है-जिन-आज्ञा। हित-प्राप्ति, अहित-परिहाररूप से जो सर्वज्ञोपदेश है, आप्तवचन है, वह आज्ञा है। आज्ञा, सिद्धान्त, प्रवचन, आगम या जिनवाणी ये एकार्थद्योतक हैं। आज्ञापनी भाषा-स्वाध्याय करो, असंयम से विरत होओ. इत्यादि प्रकार की अनुशासनात्मक भाषा। __ आज्ञारुचि-सम्यक्त्व का एक प्रकार। अर्हत्-सर्वज्ञ-प्रणीत आगममात्र के निमित्त से होने वाली श्रद्धा, रुचि, प्रतीति आज्ञारुचि है। ऐसे श्रद्धावान् को भी आज्ञारुचि कहते हैं। __ आज्ञाविचय-आज्ञा = जिन-प्रवचन, उसका विचय निर्णय करना आज्ञाविचय है, या स्वसिद्धान्तोक्त मार्ग से तत्त्वों का चिन्तन, शास्त्रों के अर्थ का चिन्तन अथवा पंचास्तिकाय, षट्काय जीव, नौ तत्त्व आदि जिनाज्ञानुसार प्ररूपित पदार्थ जैसे बताये हैं, वैसे ही ग्रहणयोग्य हैं, उनका उसी प्रकार से विचार करना आज्ञाविचय है। आज्ञाव्यवहार-देशान्तर-स्थित गुरु को अपने दोषों की आलोचना करने हेतु किसी अगीतार्थ के द्वारा आगमिक भाषा में पत्र लिख कर भेजने और गुरु द्वारा भी उसी प्रकार गूढ़ पदों में जिनाज्ञानुसार प्रायश्चित्त लिख भेजने को आज्ञाव्यवहार (प्रायश्चित्त) कहते हैं। आतप-आतप-नामकर्म-सूर्य आदि के निमित्त से जो उष्ण प्रकाश होता है, उसे आतप कहते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर स्वयं अनुष्ण होते हुए भी उसमें उष्ण प्रकाशरूप आतप हो, अथवा जो आतप का निष्पादक हो, उसे आतप-नामकर्म कहते हैं। आत्म-ज्ञप्ति-मैं हूँ' इस प्रकार की प्रतीति का उत्पन्न होना। आत्म-तत्त्व-मन की विक्षेपरहित अवस्था का नाम आत्म-तत्त्व = आत्म-स्वरूप है। आत्म-प्रभावना-मोहकर्म का उत्तरोत्तर विनाश करते हुए आत्मा को शुद्ध से शुद्धतर और शुद्धतर से शुद्धतम बनाना आत्म-प्रभावना है। आत्मा-ज्ञान-दर्शनस्वरूप जीव ही आत्मा है। वह परिणामी नित्य है, निश्चयदृष्टि से शाश्वत है। आत्मवाद-संसार में सर्वत्र व्यापक, एक ही महान् आत्मा है, वही देव, गुरु, प्रभु, भगवान् है, वही चेतन (शुद्ध आत्मा), निर्गुण, सर्वोत्कृष्ट एवं उपादेय है, उसी को लक्ष्य में रखकर हेय, उपादेय तत्त्वों का विचार व तदनुसार प्रवृत्ति-निवृत्ति करनी चाहिए ऐसा मन्तव्य आत्मवाद है। इस प्रकार जिसकी समस्त प्रवृत्ति व चिन्तनधारा आत्म-लक्ष्यी हो, वह आत्मवादी है, आत्मार्थी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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