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________________ * ४१० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * आत्मवान्-जिसे शुद्ध आत्मा के स्वरूप, स्वभाव और गुणों का ज्ञान-भान हो, जो प्रत्येक कार्य में अप्रमादभाव से शुद्ध आत्मा की दृष्टि से सोचता है, जिसका अहंत्व-ममत्व नष्ट या मन्द हो गया हो, वह आत्मवान् है, इसके विपरीत लक्षण वाला अनात्मवान् है। आत्म-विस्मृति–पाँचों इन्द्रियों तथा मन आदि अन्तःकरण के द्वारा मनोज-अमनोज्ञ, प्रिय-अप्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष आदि होने पर शुद्ध आत्मा का ज्ञाता-द्रष्टापन भूल जाना आत्म-विस्मृति नामक प्रमाद है। __ आत्म-स्वातंत्र्य-कर्मों के आस्रव और बन्ध से दूर रहने से कर्मोदय के समय समभाव से सहने से, तप, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग आदि द्वारा कर्मनिर्जरा करने से आत्म-स्वतंत्रता प्राप्त होती है। आत्माराम-आत्मा में ही सर्वतोभावेन रमण करने वाला अथवा आत्मा ही जिसके विश्राम करने हेतु आराम = उद्यान है, वह आत्माराम है। ___ आत्म-प्रतिष्ठित-जो क्रोध, मान, माया और लोभ अपने ही निमित्त से होता है, वह आत्म-प्रतिष्ठित है। इसी प्रकार दूसरे के निमित्त से होने वाला कषाय पर-प्रतिष्ठित होता है। तथैव स्व और पर दोनों के निमित्त से होने वाला क्रोधादि कषाय उभय-प्रतिष्ठित कहलाता है! जब बिना ही किसी स्व, पर या उभय कारण से अकारण ही क्रोधादि कषाय उत्पन्न होता है, वह अप्रतिष्ठित कषाय है। ___आदाननिक्षेप-समिति-चतुर्थ समिति, जिसमें श्रमणवर्ग द्वारा किन्ही सजीव-नर्जीव वस्तुओं-उपकरणों आदि को उठाना-रखना, देखभाल कर, जीव-जन्तुओं का निरीक्षण करके यतनापूर्वक उठाना-रखना आदाननिक्षेप-समिति है। आधाकर्मिक दोष-श्रमणवर्ग के लिए आरम्भ करके बनाये हुए आहार का ग्रहण करना आधाकर्मी दोष है। आदानभय-ग्रहण की हुई वस्तु के चुराये जाने, छीने जाने आदि का भय। आदेय नाम-जिस कर्म के उदय से जीव ग्राह्य, उपादेय या वहुमान्य होता है, उसके वचन या व्यवहार को लोग प्रमाण मानते हैं, वह आदेय-नामकर्म है। आधिकरणिकी क्रिया-किसी को तलवार, भाला आदि हिंसा के उपकरण देना या उससे लेना आधिकरणिकी क्रिया है। आध्यात्मिक ऐश्वर्य-शुद्ध आत्मा में निहित अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्यावाध-सुख एवं अनन्त आत्मिक-शक्ति ये चारों आत्मिक ऐश्वर्य हैं। ___आध्यात्मिक चेतना-आत्मा और ज्ञान दोनों में अभिन्नता है, तादात्म्य है। अतः प्रत्येक कार्य में ज्ञानचेतना यानी ज्ञाता-द्रष्टाभाव में स्थिरता रहना आध्यात्मिक चेतना है। ___ आन्तरिक युद्ध-युद्ध के दो प्रकार-बाह्य और आन्तरिक। बाह्य युद्ध में दूसरों के साथ लड़ने में संवर की अपेक्षा आनव ही अधिक होता है, जबकि आन्तरिक युद्ध में आत्मा आत्मा के साथ युद्ध करता है, आत्मा में घुसे हुए राग-द्वेष, काम, क्रोधादि शत्रुओं को परास्त करके खदेड़ना होता है। आत्म-युद्ध में आत्मा को ही विजयी बनाना होता है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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